पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. इन्द्रप्रस्थ से विदा
अनेक बातें ऐसी हैं कि केवल अनुभव ही कहता है कि उन्हें मानने वाला कभी भ्रान्त नहीं होता। तर्क के द्वारा उनके प्रभाव का आकलन कर पाना असंभव है। ऐसा ही है शकुन-शास्त्र। अंग फड़कते हैं, कुछ स्वप्न दीखता है, अमुक प्राणी अमुक प्रकार की चेष्टा करता या अमुक दिशा में बोलता है, इसका वहाँ रहने वाले मनुष्य के जीवन से भी कुछ सम्बन्ध है इसे तर्क से भले न जाना जा सके किन्तु विश्व के प्रत्येक देश में मनुष्य सदा से शकुनों का प्रभाव स्वीकार करता आया है। इन शकुनों के प्रभाव को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भूल-प्रकृति के इन अस्पष्ट संकेतों की व्याख्या में ही बहुधा होती है। श्रीकृष्णचन्द्र ने एक दिन प्रात:कृत्य से निवृत्त होकर दारुक को अपना रथ सज्जित करने के लिए कह दिया। स्वयं युधिष्ठिर के समीप जाकर बोले – ‘मैंने अच्छा स्वप्न नहीं देखा है। मेरी वाम भुजा फड़कती है। लगता है कि शिशुपाल के समर्थकों ने द्वारिका पर आक्रमण कर दिया है। इस समय अग्रज के साथ मैं बहुत दिनों से यहाँ रह गया। अत: आप अब अनुमति दें।’ राजसूय यज्ञ के पश्चात श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने पुत्रों को द्वारिका भेज दिया था। श्रीबलराम जी और श्रीकृष्णचन्द्र की रानियाँ इन्द्रप्रस्थ सम्राट के अनुरोध से रह गयी थीं। अब तक तो दूसरे सब स्वजन सम्बन्धी भी पाण्डवों से विदा लेकर जा चुके थे। हृदय में प्रीति हो और प्रेमास्पद समीप हो तो उसका वियोग कौन चाहेगा। भगवान पुरुषोत्तम पाण्डवों के प्राण हैं। उन अच्युत का सान्निध्य वैसे भी व्यावहारिक रूप में संरक्षण, पोषण तथा शिक्षण का अक्षय स्त्रोत है। श्रीकृष्ण जाएँगे यह सोचते ही प्राण व्याकुल होने लगते हैं किन्तु उन मधुसूदन के मन को कोई आशंका अकारण तो स्पर्श नहीं करती। वे जो सन्देह प्रकट कर रहे हैं उसे देखते हुए उनको रोकना अब उचित नहीं था। ऐसे समय यात्रा के मुहूर्त नहीं देखे जाते। क्षणवार, क्षणतिथि का ही विचार करके केवल लग्नशुद्धि ली जाती है। युधिष्ठिर ने तत्काल श्रीकृष्ण के प्रस्थान के लिए रथ तथा सेना को प्रस्तुत होने का आदेश दे दिया। श्रीकृष्ण भले सर्व समर्थ हों किन्तु सम्राट युधिष्ठिर का हृदय नहीं मानता कि उन्हें असुरक्षित विदा किया जाय। उन्होंने चतुरंगिणी सेना साथ जाने के लिए व्यवस्था की। युधिष्ठिर चाहते थे कि अर्जुन स्वयं सेना के साथ जायँ द्वारिका तक किन्तु इसे श्रीकृष्ण ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कह दिया –‘मेरे साथ अग्रज हैं, सात्यकि हैं और अभी राजसूय यज्ञ के पश्चात यहाँ भी सावधान रहना आवश्यक है। अर्जुन को अभी यहीं रहना चाहिए।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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