पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. भक्त-भयहारी
'ये कृष्ण और अर्जुन तो अजेय हैं। अर्जुन की उपस्थिति में यधिष्ठिर को देवता भी बन्दी नहीं बना सकते।' द्रोणाचार्य ने रात्रि के प्रारम्भ में दुर्योधन से कहा- 'तुम लोग किसी उपाय से अर्जुन को दूर ले जा सको तो मैं युधिष्ठिर को पकड़ सकता हूँ। अर्जुन को ललकार दे कोई तो वह उसे पराजित किये बिना नहीं लौटेगा।' आचार्य की यह बात सुनकर त्रिगर्तराज और उनके भाइयों ने प्रतिज्ञा की कि अब पृथ्वी पर या तो वे ही रहेंगे या अर्जुन ही। अग्नि को साक्षी करके इन संशप्तक वीरों ने प्रतिज्ञा की थी। प्रातःकाल बड़ी भारी सेना लेकर उन लोगों ने अर्जुन को युद्ध की चुनौती दी और सुदूर एक समतल मैदान में अपना चन्द्राकार व्यूह बनाया। अर्जुन ने राजा युधिष्ठिर की रक्षा के लिए सात्यकि, पांचाल राजकुमार सत्यजित आदि को नियुक्त किया और स्वयं संशप्तकों से युद्ध करने चले गये। संशप्तकों के शूरों का शौर्य अतुलनीय था। उनके एक-एक सैनिक ने संग्राम मे जीवन की बाजी लगा रखी थी किन्तु गाण्डीव धन्वा के साथ श्रीकृष्ण हों तो प्रतिपक्ष समर शैया के अतिरिक्त और क्या पा सकता है। अवश्य ही अर्जुन को भी दिन का अधिक भाग अविराम युद्ध करना पड़ा। मरते, कटते, संख्या बल के अनवरत क्षय होते रहने पर भी उन श्लाध्य वीरोंने सव्यसाची को तनिक भी अवकाश नहीं किया। सहसा अर्जुन को मुख्य संग्राम भूमि से उठती हाथी की भयानक चिंग्घाड़ सुनायी पड़ी और आकाश में धूलिका अम्बार उठता दीखा। उन्होंने अनुमान कर लिया कि प्राग्ज्योतिपुरका नरेश भगदत्त अपने हाथी पर चढ़कर पाण्डव पक्ष पर आक्रमण कर रहा है। पृथ्वी के गिने चुने श्रेष्ठतम वीरों में भगदत्त की गणना थी। अर्जुन चिन्तित हो उठे कि उसे आक्रमण को उनके अतिरिक्त सह लेने वाला पाण्डव पक्ष में कोई वहाँ था ही नहीं। अर्जुन मुख्य युद्धभूमि में लौटना चाहकर भी लौट नहीं पा रहे थे। अब भी लगभग आधी सेना संशप्तकों की शेष थी और वे ललकार रहे थे। अर्जुन ने अब दिव्यास्त्र के प्रयोग का निर्णय किया। इस प्रकार अधिकांश संशप्तकों को मारकर, अन्तिम चुनौती देने वाले उनके अग्रणी सुशर्मा को भी संग्राम में मूर्च्छित करके वे मुख्ययुद्ध भूमि में लौट आये। आते ही कौरव सेना को अपनी बाण वर्षा से सन्त्रस्त कर दिया और आगे बढ़ते भगदत्त की गति रोक दी। भगदत्त ने कम पौरुष नहीं प्रकट किया किन्तु अर्जुन ने अन्त में उसके धनुष और त्रोण भी काट दिये। उसके मर्मस्थलों पर आघात किया। व्याकुल होकर भगदत्त ने अंकुश पर ही वैष्णवास्त्र का आवाहन किया और उसे अर्जुन पर पूरे बल से फेंका। भगदत्त का वह अस्त्र लोकपालों को भी मार देने में समर्थ था। अस्त्र से अभिमन्त्रित अंकुश प्रज्वलित बज्र के समान सम्पूर्ण दिशाओं को आलोकित करता चला। किन्तु श्रीकृष्ण ने उठकर अर्जुन को अपनी आड़ में कर लिया और अपने वक्ष पर वह अस्त्र ले लिया। उनके श्रीवत्सांकित वक्ष का स्पर्श होते ही वैष्णवास्त्र का प्रभाव समाप्त हो गया। अंकुश तनिक आहत करता गिर पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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