पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
82. भक्त–भक्तमान
धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान व्यास तथा श्रीकृष्णचन्द्र की सम्मति स्वीकार की। वे अपने भाइयों के साथ हस्तिनापुर आये। अतिशय भव्य स्वागत किया प्रजा ने उनका। विधिपूर्वक युधिष्ठिर का हस्तिानापुर के सिंहासन पर अभिषेक हुआ। उन्होंने प्रजा के समक्ष धृतराष्ट्र को पिता का सम्मान दिया और सबके लिए परमादरणीय घोषित किया। भीमसेन युवराज बनाये गये तथा विदुर जी महामन्त्री पद पर प्रतिष्ठित हुए। सबका सत्कार करके युधिष्ठिर ने सबको यथोचित पुरस्कृत किया। धृतराष्ट्र की अनुमति लेकर भीमसेन को दुर्योधन का भवन, अर्जुन को दु:शासन का सौध, दुर्मर्षण का सदन नकुल को और सहदेव को दुर्मुख का भवन दे दिया। ये सभी राजभवन स्वर्ण-सज्जित, विपुल सम्पत्ति से भरपूर और सेवक-सेविकाओं के समूह से युक्त थे। श्रीकृष्णचन्द्र सात्यकि के साथ अर्जुन के भवन में चले गये। युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र-गान्धारी तथा विदुर की सेवा में सारा राज्य ही समर्पित कर दिया था। वे इनके आदेशानुसार ही शासन का सञ्चालन करते थे। धृतराष्ट्र को उनके पुत्रों ने कभी इतना सम्मान नहीं दिया था। वे कठपुतली मात्र रह गये थे, किन्तु अब उनका संकेत भी अनुल्लंघनीय हो गया था। युधिष्ठिर तथा उनके सभी भाइयों के लिए श्रीकृष्ण सर्वस्व थे। उनकी अनुकम्पा से ही राज्य मिला था और विपत्ति विदा हुई थी। लेकिन वे अच्युत इतने अपने थे कि किसी सम्मान-सत्कार की औपचारिकता को उसमें स्थान नहीं था। राज्याभिषेक का महोत्सव समाप्त हुआ। भाइयों को, प्रधान पुरुषों को, सेवकों को प्रजा को सब प्रकार की सुविधा देकर, सन्तुष्ट करके महाराज युधिष्ठिर बहुत रात्रि व्यतीत हो जाने पर निश्चिन्त हो सके और तब ब्राह्ममुहूर्त में अर्जुन के भवन में भगवान श्रीकृष्ण के समीप गये। वह सुन्दर, सुसज्जित कक्ष रत्नदीपों से प्रकाशित था। उसमें रत्नालंकृत स्वर्ण शय्या पर श्रीकृष्ण सीधे शान्त बैठे थे। वह पीताम्बर-परिवेष्टित नवघन-सुन्दर श्रीअंग-उसके प्रत्येक भाग से अपार तेज नि:सरित हो रहा था। इतनी शोभा, यह अलौकिक कान्ति-रत्नाभरण-भूषित, कौस्तुभ कण्ठ श्रीकृष्ण की छवि इस प्रकार एकान्त में शान्त चित्त आज ही देखने को मिली थी। धन्य-धन्य हो गये धर्मराज के नेत्र। सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो गया। कितनी देर ये हाथ जोड़े द्वार के ही समीप खड़े रहे गये, स्वयं उन्हें इसका पता नहीं लगा। हाथ जोड़े ही धर्मराज समीप आये और कहने लगे- 'भगवन ! आपकी कृपा से सब संकट कट गये। आपने हमें राज्य दिलाया और आपके अनुग्रह से हम विजयी हुए…।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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