पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. गुरुतत्व
गुरु शब्द का ठीक अर्थ है प्रकाशक। परम प्रकाशक, सर्वावभासक, स्वयं प्रकाश कौन है, यह कुछ कहने समझने की बात नहीं है। प्रकाश स्वरूप सत्ता दो नहीं हो सकती। ‘गौरवाद् गुरु:’ जो गौरवशाली है, भारी है वह गुरु है। सबसे भारी, सबसे महान् ‘महतो महीयान’ सबसे महत्तम भी वही है जो सर्वावभासक है। लेकिन वह लक्ष्य, प्राप्य है। उसे प्राप्त कराने वाला कोई चाहिए। जैसे मूर्ति पूजा का खण्डन अनेक सम्प्रदाय बड़े उत्साह से करते हैं- बिना यह समझे करते हैं कि पूजा सदा मूर्ति की ही होती है और मनुष्य के स्वभाव में पूजा करना है। मनुष्य को पूजा करने से ही रोकने का अर्थ है उसे श्रद्धा, सम्मान दानादि सद्गुणों से वंचित कर देना। चेतन की पूजा सम्भव नहीं है। साधु-संत, महापुरुष आदि किसी श्रद्धेय की पूजा की जाएगी तो पूजा भले उसे चित्र या प्रतिमा की न होकर उसके शरीर की जाय, शरीर क्या मूर्ति नहीं है? शरीर चेतन है या शरीर में शरीराभिमानी चेतन है? शरीर में जो शरीराभिमानी चेतन है, उसकी पूजा कैसे सम्भव है? वह कहाँ प्राप्य है पूजा के लिए ? पूजा तो शरीर की ही होगी और शरीर पांच भौतिक है- मूर्ति है। शरीर में जो शरीराभिमानी चेतन है, वह शरीर पूजा–सत्कार को अपनी पूजा-सत्कार जानता है और इससे प्रसन्न होता है, यह सत्य है; किन्तु तब जो सर्वव्यापक चेतन है, वह मूर्ति में है या नहीं ? वह सर्वज्ञ है या नहीं ? जैसे देह में स्थित देही समझता है कि देह की पूजा करने वाला हड्डी, मांसादि की पूजा नहीं कर रहा, उसकी पूजा कर रहा है, उसी प्रकार जो सर्वव्यापक है, मूर्ति में भी है, वह क्या नहीं समझता कि पूजक पत्थर काष्ठादि की पूजा की नहीं कर रहा, उसकी उसकी पूजा कर रहा है? पूजा चेतन की होती है- जड़ की नहीं होती; किन्तु जड़ को माध्यम बनाए बिना चेतन की पूजा सम्भव ही नहीं है। सर्वव्याप, सर्वेश्वर, सर्वज्ञ की पूजा मूर्ति के माध्यम से न करके संतादि के शरीर के माध्यम द्वारा करने में एक दोष है। शरीर में उस अन्तर्यामी के अतिरिक्त देहाभिमानी जीव भी है। वह जीव देह की पूजा को अपनी पूजा मानकर स्वीकार कर लेता है और पूजक की दृष्टि भी उस देही पर रुकी रह सकती है- रुकी रहती है। पाषाण-काष्ठादि मूर्ति के माध्यम से पूजा होती है तो पूजक की दृष्टि में न काष्ठ-पाषाणादि होता है, न कोई जीव। वह सीधे ईश्वर को आराध्य को ही पूजता है और उसकी पूजा को मध्य में अपनी मानने वाला जीव वहाँ कोई है नहीं; अत: वह पूजा सीधे ईश्वर को प्राप्त होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रा. च. मा. 1.116.6
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