पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
86. अनुगीता
श्रीकृष्ण भक्तवत्सल इतने कि अर्जुन के साथ इन्द्रप्रस्थ में रहते एक दिन बोले- 'धनण्जय ! तुम्हारे साथ रहने पर मुझे निर्जन वन में भी सुख मिलता है; फिर यहाँ तो तुम सब भाई हो, बुआजी हैं। तुम्हारा यह सभा-भवन स्वर्ग से भी सुन्दर है। लेकिन विजय ! यहाँ आये मुझे बहुत दिन बीत गये। पिताजी, मेरे अग्रज तथा अन्य द्वारिका के लोगों को मैंने बहुत दिनों से नहीं देखा है, अत: द्वारिका जाना चाहता हूँ।' संकोच-निधान इतने कि सर्वेश्वर होकर भी सखा से अनुनय करने लगे- 'तुम मुझे धर्मराज से द्वारिका जाने की आज्ञा दिला दो। मेरी सब सम्पत्ति और यह शरीर भी धर्मराज की सेवा में समर्पित है। वे मेरे परम प्रिय तथा माननीय हैं। मेरे प्राणों पर संकट आ जाय तो भी मैं उनका अप्रिय नहीं कर सकता। द्वारिका जाने की बात कहकर मैं उनके हृदय को कष्ट नहीं दे सकता। यहाँ अब मेरा रहने का प्रयोजन पूरा ही हो गया है।' अर्जुन ने बहुत मन मारकर यह प्रस्ताव स्वीकार किया। वे साश्रुनेत्र प्रणाम करके बोले- 'पुरुषोत्तम ! युद्धारम्भ के समय आपने मुझे जो उपदेश किया था, वह अपनी बुद्धि-दोष से मुझे विस्मृत हो गया। उसे पुन: सुनने की मन में बार-बार उत्कण्ठा होती है। आप द्वारिका जाने को कह रहे हैं, अत: मुझे वह सब एक बार फिर से सुना देने की कृपा करें।' श्रीकृष्ण यह सुनकर प्रसन्न नहीं हुए। उनका स्वर कुछ खिन्न था- 'अर्जुन ! मैंने उस समय योग युक्त होकर परमतत्व का वर्णन किया था। उसे पुन: स्मरण कर पाना तथा दुहरा देना संभव नहीं है। अत: उस विषय का ज्ञान कराने के लिए मैं दूसरी पद्धति से एक प्राचीन सम्वाद सुनाता हूँ।' श्रद्धा-सहित श्रवण किया गया ज्ञान निष्फल नहीं होता। अर्जुन में गीता-श्रवण के समय श्रद्धा सम्पूर्ण थी; किन्तु श्रवण को मनन, निदिध्यासन का समय नहीं मिला। युद्ध के घोर कर्तव्य में व्यस्त हो जाने से वह उपदिष्ट ज्ञान अवरुद्ध हो गया; किन्तु प्रतिबन्ध की निवृत्ति होने पर उसका प्रकाश तो स्वत: होने वाला था। अत: उसे दुहराना आवश्यक नहीं था। श्रद्धा का अभाव हो, अन्त:करण शुद्ध न होने से अधिकारी श्रोता न हो, अथवा अपने प्रश्न में ही आग्रह हो तो श्रुत ज्ञान का ग्रहण नहीं होता। अर्जुन में श्रद्धा थी और कोई पूर्वाग्रह भी नहीं था; किन्तु इस समय केवल कुतूहल था, वैराग्य की प्रबलता-प्रबुद्ध विवेक तथा तीव्रतम जिज्ञासा नहीं थी। अत: उनके अन्त: करण को प्रेरणा देने वाले उपदेश की ही आवश्यकता थी। वे सामान्य सत्संग के इस समय अधिकारी थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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