पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
3. प्रस्तावना
बुभुत्सा- भोग प्राप्त करने की इच्छा। मूलत: सुख की- आनन्द की इच्छा है, क्योंकि भोग प्राप्त ही करना है सुख के लिए, तृप्ति के लिए और भोग देह या इन्द्रियों को नहीं प्राप्त होता। भोग प्राप्त होता है मन को। देह और इन्द्रियां तो मन के करण मात्र हैं। जिजीविषा का निकृष्टतम रूप है हिंसा, युद्ध- दूसरों को मारकर स्वयं जीवित रहने की इच्छा। इसमें भय, आक्रमण, संघर्ष है और यह अपने शरीर, परिवार, ग्राम, जाति, देश, संस्कृति आदि का जितना बड़ा आधार बनाती है, इसका रूप उतना विकराल होता जाता है। इसका उत्कृष्टतम रूप है दूसरे के हित के लिए अपना उत्सर्ग कर देना- आत्म बलिदान। यह रूप धर्म भावना से परिर्माजित है, किन्तु इसमें भी नाम को बनाये रखने की इच्छा- लोकेषणा रहती है। यहाँ जिजीविषा देह से उठकर देह के नाम में समाहित हो जाती है और व्यक्ति नाम को अमर करने के लिए जीवन का भी उत्सर्ग कर देता है। बुभुत्सा- भोग प्राप्त करने की इच्छा का निकृष्टतम रूप है दूसरे का भोग छीनकर, नष्ट करके स्वयं सुखी होने की इच्छा। विषय सुख प्राप्त करने की इच्छा इसका राजसिक रूप है और इसका उत्कृष्टतम रूप है निरपेक्ष सुख। विषय वाह्य पदार्थों से निरपेक्ष अपने आप में ही आनन्द। जिज्ञासा का भी निकृष्टतम रूप है और वह है साहसिक अभियान। पर्वत शिखरों पर, ज्वालामुखी के गर्भ में उतरने की बलवती इच्छा- केवल यह जानने की इच्छा कि वहाँ है क्या। इसका पैशाचिक रूप है कि कोई मरते समय कैसे तड़पता है, यह देखने के लिए मनुष्य दूसरे प्राणी या मनुष्य को मार देता है। लेकिन इसका उत्कृष्टतम रूप व्यक्ति को दार्शनिक बनाता है। व्यक्ति चेतन की, सृष्टि के मूल कारण की खोज में लगता है। जिजीविषा इसलिये आप में है क्योंकि आपका जीवन नित्य है। सत्य हैं। अत: उचित यह है कि आप किसी के भी जीवन के लिए आतंक उपस्थित न करें। ‘जियो और जीने दो’ का नारा जितना रोचक लगता है, उतना ही कठिन भी है। यह सम्पूर्ण अहिंसा की मांग करता है और यही हिन्दू धर्म के संन्यास का संकल्प है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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