पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
21. अग्र-पूजा
यज्ञ सम्पूर्ण हो गया। अभिषेक के अन्तिम दिन सत्कार के योग्य महर्षियों तथा ब्राह्मणों ने यज्ञशाला में प्रवेश किया। सब प्रभावशाली राजा भी वहाँ आकर आसनों पर बैठ गये। उस समय वहाँ कोई शूद्र अथवा दीक्षाहीन द्विज नहीं था। इसी समय पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा- ‘आचार्य, ऋत्विक, सम्बन्धी, स्नातक, राजा तथा प्रिय व्यक्ति यदि एक वर्ष के अन्तर पर अपने यहाँ आवें तो विशेष अर्घ्य देकर उनका पूजन करना चाहिए। ये सभी लोग हमारे यहाँ बहुत दिनों के पश्चात् आये हैं। यह तुम्हारे महान अभ्युदय का, सम्राट पद की प्राप्ति का अवसर है। अत: राजन् ! अब तुम समागत राजाओं का यथायोग्य सत्कार करो। इन सबमें जो सर्वश्रेष्ठ हैं, सम्राट जिनको अपना सर्वदा आदरार्ह मानेंगे और जिनका सम्मान करेंगे उनकी स्वयं सबसे प्रथम पूजा करो। धर्मराज युधिष्ठिर ने सम्राट युधिष्ठिर ने खड़े होकर पूरे समाज के सम्मुख पुकारकर कहा- ‘इन समागतों में सबसे सम्मान्य कौन हैं? किसे प्रथम प्रजा प्राप्त होनी चाहिए। हम किसका प्रथमार्चन से सत्कार करें ?’ अब सदस्यों में मतभेद उपस्थित हो गया। कोई किसी महर्षि की अग्र पूजा के पक्ष में थे और कोई किसी राजर्षि की। कुछ ने प्रश्न को विवाद से बचाने के लिए देवराज इन्द्र के प्रथमार्चन का भी सुझाव रखा। लेकिन किसी की सम्मत्ति निर्विरोध नहीं थी। एक समूह देवताओं को इस प्रकरण में बीच में नहीं डालना चाहता था और दूसरा समूह कहता था- ‘यह सम्राट के द्वारा प्रथम सत्कृत होने का सम्मान राजाओं में ही किसी को मिलना चाहिए। सुर और ब्राह्मण तो सबके पूजार्ह हैं ही। यहाँ इस समय उनकी पूजा का प्रश्न ही नहीं उठता।’ स्वयं सम्राट युधिष्ठिर तथा उनके भाइयों को इन सुझावों के प्रति कोई रुचि नहीं थी। पितामह भीष्म की ओर युधिष्ठिर ने देखा ही था कि मगधराज जरासन्ध का पुत्र सहदेव सभा में उठ खड़ा हुआ। जरासन्ध भले राजसूय यज्ञ करके सम्राट नहीं बना था किन्तु राजाओं का अग्रणी रहा था। उसका पुत्र सहदेव अब जरासन्ध के समर्थकों के लिए सम्मान्य था। उसके उठने पर उस पक्ष के सब नरेश चुप हो गये। सहदेव ने बहुत गम्भीर होकर कहा- ‘श्रेष्ठत्व प्राप्त करने योग्य सात्वतों के स्वामी केवल भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। ये सर्वदेवमय हैं। देश, काल, वस्तु सब इनका ही स्वरूप हैं। |
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