पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
64. कर्ण को स्वीकृति
द्रोणाचार्य के संग्राम-भूमि में खेत रहने पर दुर्योधन ने कर्ण को अपने दल का प्रधान सेनापति बनाया। अपने सेनापतित्व के प्रथम दिन कर्ण कोई उल्लेखनीय ऐसा कार्य नहीं कर सका, जो दुर्योधन को उत्साहित करता। दूसरे दिन प्रातःकाल स्वयं कर्ण दुर्योधन के समीप जाकर बोला- 'मैं इन्द्र की दी हुई शक्ति खो बैठा हूँ, अतः अवश्य आज अर्जुन मेरे ऊपर ही धावा करेगा। अतः आप काम की बात सुनिये।' कर्ण का कहना था कि वह दिव्यास्त्र ज्ञान में अर्जुन के समान ही है। शत्रु के पराक्रम को कुचलने में, स्फूर्ति में युद्ध-कौशल में तथा अस्त्र चालन में अर्जुन से अधिक श्रेष्ठ है। बल, विक्रम, विज्ञान, पराक्रम, एवं लक्ष्यवेध में भी अर्जुन उसके समान नहीं है। इसमें कर्ण का अहंकार उससे अतिश्योक्ति करा रहा था, यह माना जा सकता है। कर्ण ने यह भी कहा कि उसके पास वह विजय नामक धनुष हैं, जिसे विश्वकर्मा ने इन्द्र के लिए बनाया था और जिससे इन्द्र ने असुरों पर विजय प्राप्त की। परशुरामजी के द्वारा प्राप्त वह धनुष पार्थ के गाण्डीव से उत्तम है। इसी से भगवान परशुराम ने पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया था। अपनी श्रेष्ठता सूचित करके कर्ण ने अपनी दुर्बलतायें भी गिनायीं। उसने बतलाया कि अर्जुन की धनुष प्रत्यञ्चा दिव्य है। कर्ण को पता नहीं था कि अर्जुन के पास सदा सौ प्रत्यञ्चा रहती थी। ’अर्जुन के त्रोण अक्षय है।’ कर्ण ने कहा- 'उनके बाण कभी समाप्त नहीं होते। इसका यही प्रतिकार है कि वाणों से भरे छकड़े मेरे रथ के पीछे सदा चलते रहे। 'अर्जुन के समीप अग्नि का दिया दिव्य रथ है। वह किसी ओर से तोड़ा नहीं जा सकता।’ कर्ण कहता गया- 'उसके रथ के अश्व मन के समान वेगवान है और उनमें कोई मर भी जाय तो उसके स्थान पर दूसरा अश्व स्वयं प्रकट हो जाता है। आप ऐसी व्यवस्था कर दें कि मेरा रथ टूटते ही दूसरा रथ मुझे मिलता रहे।’ कुछ ऐसी बातें भी कर्ण ने गिनायीं जिनका कोई प्रतिकार नहीं था। उसने कहा- 'अर्जुन के रथ की पता का तथा ध्वजा दिव्य है। वह न कहीं रुकती है, न काटी जा सकती। उस ध्वजदण्ड के साथ जो वानर बैठता है, वह बड़ा ही विस्मय में डालने वाला तथा भयंकर है। उसकी ओर देखने से ही बड़े से बड़े वीर का साहस समाप्त हो जाता है; किन्तु मैं उसकी ओर नहीं देखूँगा। अच्छा यही है कि वह भी शान्त बैठा रहता है और अपने नेत्र नीचे ही रखता है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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