पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. पार्थ पवनपुत्र परिचय
अर्जुन ने अपना गाण्डीव चढ़ाया और बाण वृष्टि आरम्भ कर दी। सचमुच सरोवर पर एक तट से दूसरे तट तक शरों से निर्मित सुदृढ़ सेतु कुछ क्षणों में ही सम्मुख था। धनुष उतारते हुए धनञ्जय ने कहा – ‘अब आप इस पर से पार जा सकते हैं।’ पवननन्दन उठे। उन्होंने जो भयंकर ‘कनक भूधराकार’ शरीर धारण किया उसकी कल्पना भी अर्जुन ने नहीं की थी। जब उन आञ्जनेयने अपने दोनों हाथों में दो विशाल गिरि शिखर उठाये, अर्जुन का रहा सहा धैर्य भी समाप्त हो गया। अब अभिमान तो नष्ट हो ही गया, प्रज्वलित चिता दीखने लगी नेत्रों के सम्मुख। इतना भार कोई भी सुदृढ़तम सेतु सहन नहीं कर सकता यह वे समझ गये। अर्जुन को अपने सखा का स्मरण आया। जीव जब अपने पराक्रम से निराश हो जाता है और विपत्ति मुख फाड़े निगलने को सम्मुख आ खड़ी होती है तभी तो उसे जगन्नाथ का स्मरण होता है। अर्जुन मन ही मन आर्त होकर पुकारने लगे – ‘हृषीकेश ! भक्त वत्सल ! मेरी रक्षा कर लो। अपने अर्जुन को बचा लो। मुझे मरने का भय नहीं; किन्तु मैं यहीं मर गया तो आपके आश्रित शेष पाण्डव और पाञ्चाली के प्राण भी बचेंगे नहीं। अज्ञानी जीव अपराध करता है और उसका फल देखकर भयातुर भगवान को पुकारता है; किन्तु उन भक्तवत्सल ने कब किसी के दोष देखे हैं। वे तो आहृवान करने वाले की सहायता के लिए सदा प्रस्तुत रहते हैं। अर्जुन व्याकुल पुकार रहे थे किन्तु वे अनन्त शक्ति वहाँ उपस्थित होकर अपने दोनों अनन्य आश्रितों की रक्षा व्यवस्था कर चुके थे, यह दो में–से एक को भी पता नहीं था। श्रीकेशरी-किशोर यदि सेतु पर कूद पड़ते तो भी वह टूटता नहीं किन्तु अन्होंने साधारण रीति से ही उस पर पद रखा और दोनों पद रखते ही आश्चर्य से चौंक गये कि उनके भार को यह वाणों का सेतु सहन कैसे कर सका। उन्होंने अपने पदों के पास सेतु की ओर देखा। वहाँ नीचे से पानी में बहुत वेगपूर्वक रक्त आ रहा था और उससे सरोवर का जल लाल होता जा रहा था। हनुमान जी ने नेत्र बन्द करके ध्यान किया – ‘यह क्या है?’ क्षणार्ध में कूदकर केशरी कुमार तट पर आ गये। उन्होंने ध्यान में देख लिया कि स्वयं उनके वही नवघन सुन्दर आराध्य महाकच्छप बनकर सेतु के नीचे पीठ लगाये हैं और रक्त उनके शरीर से ही निकल रहा है। पवन पुत्र ने हाथों के पर्वत फेंक दिये और पार्थ को हृदय से लगाकर गदगद स्वर में बोले –‘धनञ्जय ! धन्य हो तुम ! तुम्हारे लिए वे सर्वेश्वरेश्वर कच्छप बनकर अपने पृष्ठ पर मेरा भार ग्रहण करने आ गये। मैं अपनी पराजय स्वीकार करता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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