पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
27. वन में मिलन
श्रीकृष्ण के ये वचन महारानी द्रौपदी के भी श्रवणों में पड़े। वे समीप आ गयीं और बोलीं – ‘मधुसूदन ! मैंने महर्षि असित और देवल के मुख से सुना है कि सृष्टि के प्रारम्भ में आप अकेले ही थे और आपने बिना किसी की सहायता के यह सचराचर सृष्टि की। भगवान परशुराम ने मुझसे कहा कि आप ही अपराजेय विष्णु हैं। प्रजापति कश्यप ने बतलाया कि आप ही यज्ञ पुरुष हैं और पञ्चभूत भी आप ही हैं। देवर्षि नारद ने कहा कि समस्त सुरों के आप स्वामी हैं। सब प्रकार के कल्याण के सम्पादक हैं। सृष्टिकर्ता हैं और महेश्वर हैं। ब्रह्मा, शिव, इन्द्रादि देवता तो आपके खिलौन हैं। आप विश्वरूप सनातन पुरुष हैं। धर्म, तप, त्याग, ध्यान, ज्ञान आदि के द्वारा आपकी ही सब साधक सिद्ध आराधना करते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड आप में ही प्रतिष्ठित है। युद्ध में मरने वाले शूर तथा योगी आपको ही प्राप्त होते हैं। लोक, लोकपाल, दिशाएँ, तारागण, सूर्य, चन्द्र तथा आकाश भी आप विभु में ही स्थित है। आप ही सर्व लोकेश्वर हैं, अत: मैं आपसे अपना दु:ख निवेदन करती हूँ।’ जो सर्वरूप, सर्वाश्रय, सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ करुणामय हैं, दु:खी प्राणी उसे छोड़कर अन्यत्र शरण की आशा करें और रोवें तो उसका दुर्भाग्य। द्रौपदी ने कहा – ‘मैं आपके शरणापन्न पाण्डवों की पत्नी, धृष्टद्युम्न की उनके साथ अग्नि से उत्पन्न बहिन और आपकी सखी हूँ। मुझे भरी सभा में केश पकड़कर घसीटा गया। कौरवों ने बेईमानी से हमारा राज्य छीन लिया। पाण्डवों को दास बना लिया और उस गुरुजनों की सभा में मुझ रजस्वला, एकवस्त्रा को केश पकड़कर घसीटकर ला खड़ा किया। ये भीमसेन और अर्जुन देखते रहे, ये मेरी रक्षा नहीं कर सके। इनके बल पौरुष को धिक्कार है। इनके होते दुर्योधन या दु:शासन क्षण भर भी कैसे जीवित रहा।’ द्रौपदी ने रोते-रोते दुर्योधन के अब तक के सब कुकृत्य गिना दिये। भीमसेन को विष देकर नहीं में फेंक देना, लाक्षागृह में पाण्डवों को जला देने की चेष्टा आदि सबका वर्णन करके पाँचाली ने कुछ क्रुद्ध स्वर में कहा – ‘श्रीकृष्ण, तुम मेरे सम्बन्धी हो, मैं। अग्निकुण्ड से उत्पन्न गौरवशालिनी हूँ, तुम्हारे श्रीचरणों का मैंने सचाई से आश्रय लिया है और तुमने स्वयं सखि कहकर मुझे अपने पर अधिकार दिया है, इन चार कारणों से तुम्हें सदा मेरी रक्षा करनी चाहिए।’ द्रौपदी का क्रोध उचित था। श्रीकृष्ण के विशाल लोचन भर आये। वे बोले- ‘कल्याणी ! तुम जिन पर क्रुद्ध हो, उनकी स्त्रियाँ इसी प्रकार उन्मुक्त केशा रोवेंगी और तब उन्हें आश्वासन देने वाला भी कोई नहीं होगा। तुम्हारे शत्रु थोड़े दिन में ही अर्जुन के बाणों से विद्ध होकर समर भूमि में गिरेंगे। मैं वही करुँगा जो पाण्डवों के अनुकूल होगा।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज