श्रीकृष्ण गीतावली
3. उलूखल-बन्धन
राग केदारा
(14) (श्यामसुन्दर ने दही की मटकी फोड़ दी, माखन बंदरों को लुटा दिया। यशोदा मैया उन्हें पकड़ने चलीं, वे दौड़े, पर आखिर पकड़े गये। मैया ने छड़ी हाथ में लेकर उन्हें डाँटना आरम्भ किया, वे डर गये, आँखो से आँसू बह चले। इसी समय यशोदा मैया की समवयस्का कुछ गोपियों ने आकर यशोदा से कहा-) (अरी यशोदे! सबके मन को बरबस हर लेने वाले) हरि के सुन्दर मुख की ओर तो देख। निष्ठुर की भाँति सर्वथा डाँटने पर ही उतर पड़ी है। (तुझे दया नहीं आती?) छड़ी को फेंक दे हाथ से ।। 1 ।। (देख !) सुन्दर नेत्रों से कमनीय काजल से युक्त जल के कण (आँसू की नन्हीं-नन्हीं बूँदें) किस प्रकार गिर रहे हैं, मानो चन्द्रमा से श्याम कमल के मार्ग से अमृतरुप श्रृंगार- रस स्त्रवित हो रहा है।। 2 ।। (अहा!) शोभामय हृदय पर पड़ी हुई दही की बूँद तो ऐसी सुन्दर लगती है कि उसे देखकर अरी सखी! अपनपा (आत्मा की सुध-बुध) ही खो देनी चाहिये, ( वह बूँद ऐसी शोभा पा रही है) मानो मरकत मणि के पर्वत-शिखर पर उज्ज्वल हिमखण्ड (बर्फ) सुशोभित हो ।। 3 ।। (ऐसे) कन्हैया पर भी टेढ़ी भौंहें अरी महरि (यशोदे)! मन में विचार तो कर! तुलसीदास जी कहते हैं कि इस नन्दकुमार को निरखकर क्रोध क्यों कर रह सकता है?।। 4 ।। |
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