श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग केदार
(55) उद्धव जी! निर्मोहियों (श्रीकृष्ण- जैसे ममता-मोहरहित प्रेसास्पदों) से प्रेम करके कौन (ऐसा है जो दुःख से कातर नहीं हुआ? (श्रीकृष्ण के निर्मोहीपन की बातों को बार-बार) सुनने, समझने और (परस्पर) कहने से हम सब बड़ी मूढ़ हो गयी हैं ।। 1 ।। हमारा मूढ़ मन तो अब सर्प, हरिन, पतंग, कमल, चकोर, चातक और मछली (जैसे एकांगी प्रमियों) की पंक्ति में बैठकर (उन्हीं के समान) सुख प्राप्त करना चाहता है।। 2 ।। तुलसीदास जी के शब्दों में एक गोपी कहती है कि- (प्रेमास्पद की) निष्ठुरता और (प्रेमी के) प्रेम की गति (उसका रहस्य) बड़ा ही दुर्गम है, उसका वर्णन तो हो ही नहीं सकता। हमें तो सदा अपने प्रेम को मलिन जानकर चिन्ता रहती है। (उपर्युक्त प्रेमी प्राणियों की भाँति वह विशुद्ध एकांगी नहीं है, इसीसे तो हमारे प्राण नहीं निकल रहे हैं।) ।। 3 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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