श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग कान्हरा
(51) (इस) भ्रमर (उद्धव) की चतुरता (भरी बातों) को (भला) कौन सुने, जो अपनी बुद्धि के विलास से ही आकाश को सीना चाहता है? ।। 1 ।। भगवान की भक्ति सुख की खान है, यह (अत्यन्त) सरल और सुलभ है। इसकी महिमा वेद-पुराणों में गायी गयी है। उस भक्ति रूपी सुधा रस को छोड़कर अरी माई! (शुष्क निर्गुण ज्ञान की प्राप्ति के लिये) मनोरथ कर-करके (भला) कौन करेगा ? ।। 2 ।। (यह सत्य है कि) उसके लिये वही मार्ग प्रिय होता है, जिसकी जहाँ अनुकूलता होती है फिर भी (कोमल) मोम के दाँतों से वज्र (हीरे) के लड्डू चबाने की बात तो कहना-सुनना ही पागलपन है। (हम कोमल प्रेमरसपूरित हृदय वाली गोपियों से कठोर ब्रह्म का साधन करवाना पागलपन ही है।) ।। 3 ।। व्रज की यह महिला तीनों लोकों में प्रसिद्ध है कि यह सगुण श्यामसुन्दर रूप क्षीरसागर के तट पर बसा है। (व्रज को यह सगुण सुमधुर दूध नित्य प्राप्त है।) अब उस (क्षीरसिन्धु) को छोड़कर विषपूर्ण आक दुहने (निर्गुण विचार करने) की बात तुमने कही है। सो हमने तो ऐसी बुद्धि नहीं प्राप्त की है (कि तुम्हारी इस बात को सुनें) ।। 4 ।। यदुपति श्रीकृष्ण सबकी बुद्धि, ज्ञान और अज्ञान को भी (भली-भाँति) जानते हैं। तुलसीदास जी के शब्दों में गोपी कहती है कि अरे दुष्ट भ्रमर! अब (व्यर्थ की) बकबक मत करो। जिन्होंने (तुम को भी) आग्रहपूर्वक रात-दिन (रसमय) आम के बगीचे में रहने (अपने सामीप्य का सुअवसर) दिया है, उनकी ओर से फिर तुम हमें यह नीरस उपदेश क्यों दे रहे हो ।। 5 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ सुधाकर
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