श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास पृ. 59

श्रीकृष्ण गीतावली

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8. गोपी-विरह
राग कान्हरा

(51)
कौन सुनै अलि की चतुराई।
अपनिहिं मतिबिलास अकास महँ चाहत सियनि चलाई ।। 1 ।।
सरल सुलभ हरिभगति सुखाकर[1] निगम पुराननि गाई ।
तजि सोइ सुधा मनोरथ करि को मरिहै री, माई ।। 2 ।।
जद्यपि ताको सोइ मारग प्रिय जहाँ बनि आई ।
मैन के दसन कुलिस के मोदक कहत सुनत बौराई ।। 3 ।।
सुगन छीरनिधि तीर बसत ब्रज तिहुँ पुर बिदित बड़ाई।
आक दुहन तुम कह्मो, सो परिहरि हम यह मति नहिं पाई ।। 4 ।।
जानत हैं जदुनाथ सबनि की बुधि बिबेक जड़ताई।
तुलसीदास जनि बकहि मधुप सठ! हठ निसि दिन अँवराई ।। 5 ।।

(इस) भ्रमर (उद्धव) की चतुरता (भरी बातों) को (भला) कौन सुने, जो अपनी बुद्धि के विलास से ही आकाश को सीना चाहता है? ।। 1 ।। भगवान की भक्ति सुख की खान है, यह (अत्यन्त) सरल और सुलभ है। इसकी महिमा वेद-पुराणों में गायी गयी है। उस भक्ति रूपी सुधा रस को छोड़कर अरी माई! (शुष्क निर्गुण ज्ञान की प्राप्ति के लिये) मनोरथ कर-करके (भला) कौन करेगा ? ।। 2 ।। (यह सत्य है कि) उसके लिये वही मार्ग प्रिय होता है, जिसकी जहाँ अनुकूलता होती है फिर भी (कोमल) मोम के दाँतों से वज्र (हीरे) के लड्डू चबाने की बात तो कहना-सुनना ही पागलपन है। (हम कोमल प्रेमरसपूरित हृदय वाली गोपियों से कठोर ब्रह्म का साधन करवाना पागलपन ही है।) ।। 3 ।। व्रज की यह महिला तीनों लोकों में प्रसिद्ध है कि यह सगुण श्यामसुन्दर रूप क्षीरसागर के तट पर बसा है। (व्रज को यह सगुण सुमधुर दूध नित्य प्राप्त है।) अब उस (क्षीरसिन्धु) को छोड़कर विषपूर्ण आक दुहने (निर्गुण विचार करने) की बात तुमने कही है। सो हमने तो ऐसी बुद्धि नहीं प्राप्त की है (कि तुम्हारी इस बात को सुनें) ।। 4 ।। यदुपति श्रीकृष्ण सबकी बुद्धि, ज्ञान और अज्ञान को भी (भली-भाँति) जानते हैं। तुलसीदास जी के शब्दों में गोपी कहती है कि अरे दुष्ट भ्रमर! अब (व्यर्थ की) बकबक मत करो। जिन्होंने (तुम को भी) आग्रहपूर्वक रात-दिन (रसमय) आम के बगीचे में रहने (अपने सामीप्य का सुअवसर) दिया है, उनकी ओर से फिर तुम हमें यह नीरस उपदेश क्यों दे रहे हो ।। 5 ।।

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टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. सुधाकर

संबंधित लेख

श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. बाल-लीला 1
2. गोपी-उपालम्भ 4
3. उलूखल-बन्धन 15
4. इन्द्रकोप-गोवर्धन-धारण 21
5. गोचारण अथवा छाक-लीला 40
6. यमुना तट पर वंशीवादन 24
7. शोभा-वर्णन 5
8. गोपी-विरह 29
9. भक्त-मर्यादा-रक्षण 71
पदों की वर्णानुक्रमणिका
1. अब सब साँची कान्ह तिहारी। 6
2. अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई। 8
3. अब ब्रज बास महरि किमि कीबो। 9
4. आजु उनीदे आए मुरारी। 26
5. आलि! अब कहुँ जनि नेह निहारि। 33
6. आली! टति अनुचित, उतरु न दीजैं। 52
7. ऊधो! या ब्रज की दसा बिचारौ। 40
8. ऊधो जू कह्यो तिहारोह कीबो। 42
9. ऊधो! यह ह्या न कछू कहिबे ही। 47
10. ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै। 53
11. ऊधो! प्रीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुख दीन?। 63
12. ऐसो हौंहुँ जानति भृंग! 62
13. कबहुँ न जात पराए धामहिं। 5
14. कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी। 71
15. करि है हरि बालक की सी केलि। 32
16. कही है भली बात सब के मन मानी। 56
17. कान्ह, अलि, भए नए गुरू ग्यानी। 54
18. काहे को कहत बचन सँवरि। 61
19. कोउ सखि नई बात सुनि आई। 39
20. कौन सुनै अलि की चतुराई। 59
21. गहगह गगन दुंदुभी बाजी। 73
22. गावत गोपात लाल नीकें राग नट हैं। 24
23. गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं। 28
24. गेकुल प्रीति नित नई जानि। 25
25. छपद! सुनहु बर बचन हमारे। 66
26. छाँडो मेरे ललन! ललित लरिकाई। 13
27. छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू 2
28. जब ते ब्रज तजि गये कन्हाई। 35
29. जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें। 10
30. जो पै अलि! अंत इहै करिबो हो। 46
31. जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए। 11
32. टेरीं (कान्ह) गोबर्धन गैया। 22
33. ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ भोरें। 51
34. तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेंरें। 3
35. दीन्ही है मधुप सबहि सिख नीकी। 50
36. देखु सखी हरि बदन इंदु पर। 25
37. नहिं कछु दोष स्याम को माई। 30
38. ब्रज पर घन घमंड करि आए। 21
39. बिछुरत श्रीब्रजराज आजु 29
40. भली कही, आली हमहुँ पहिचाने। 25
41. भूलि न जात हौं काहू के काऊ। 45
42. महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै। 7
43. मधुकर! कहहु कहन जो पारौ। 41
44. मधुकर! कान्ह कही ते न होही। 48
45. मधुप! समुझि देखहु मन माही। 68
46. मधुप! तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है? 49
47. ( माता) लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै। 1
48. मेने जान और कछु न मन गुनिए। 44
49. मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं। 4
50. मोको अब नयन भए रिपु माई! 69
51. ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि, 19
52. लागियै रहति नयननि आगे तें 34
53. लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन। 16
54. सब मिलि साहस करिय सयानी। 55
55. ससि तें सीतल मोकौं लागै माई री! तरनि। 36
56. सो कहौ मधुप! जे मोहन कहि पठई। 43
57. सुनत कुलिस सम बचन तिहाने। 64
58. संतत दुखद सखी! रजनीकर। 37
59. हरि को ललित बदन निहारु 15
60. हा हा री महरि! बारो, कहा रिस बस भई, 17
61. हे हम समाचार सब पाए। 57

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