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छपद! सुनहु बर बचन हमारे।
बिनु ब्रजनाथ ताप नयननि को
कौन हरे, हरि अंतर कारे ।। 1 ।।
कनक कुंभ भरि-भरि पियूष जल
बरषत जलद[1] कलप सत हारे।
कदलि सीप, चातक को कारज
स्वाति बारि बिनु कोउ न सँवारे ।। 2 ।।
सब अँग रुचिर किसोर स्यामघन
जेहिं ह्यदि जलज बसत हरि प्यारे।
तेहिं उर क्यों समात बिराट बपु
स्यों महि सरित सिंधु गिरि भारे ।। 3 ।।
बढ्यो प्रेंम अति प्रलय के बर[2] ज्यों
बिपुल जोग जल बोरि न पारे।
तुलसिदास ब्रज बनितनि को ब्रत
समरथ को करि जतन निवारे ।। 4 ।।
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