श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास पृ. 32

श्रीकृष्ण गीतावली

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8. गोपी-विरह
राग धनाश्री

(26)
करि है हरि बालक की सी केलि।
हरष न रचत, बिषाद न बिगरत[1]ए डगरि चले हँसि खेलि ।। 1 ।।
बई[2] बनाय बारि बृंदाबन प्रीति सँजीवनि बेलि।
सींचि सनेह सुधा, खनि काढ़ी लोक बेद परहेलि ।। 2 ।।
तृन ज्यों तजीं, पालि तनु ज्यों हम[3] बिधि बासव बल पेलि।
एतहु पर भावत तुलसी प्रभु गए मोहिनी मेलि ।। 3 ।।

(श्यामसुन्दर के उदासीन-भाव का और अपनी उनके प्रति प्रीति-भावना का दिग्दर्शन कराती हुई एक सखी कहती है-) हरि ने (हमारे मनों को हरण करने वाले श्रीकृष्ण ने) यह बालकों के (घरौंदे के) सदृश खेल किया। उन्हें न प्रीतिरूपी भवन बनाने में हर्ष हुआ और न उसे उजाड़ने में विषाद ही हुआ, हँस-खेलकर (उदासीन की भाँति) अपनी राह चल दिये ।। 1 ।। वृन्दावन की बाड़ी (वाटिका) को बनाकर उसमें (उन्होंने अपने हाथों) जिस प्रेम की संजीवनी लता को बोया (लगाया) तथा स्नेह-सुधा से सींच-सींचकर बढ़ाया, उसी को, लोक-वेद (की मर्यादा) का तिरस्कार करके (लोक-वेद की मर्यादा के अनुसार अपने लगाये और बढ़ाये हुए पौधे को कोई नहीं काटता) खोदकर निकाल फेंका।। 2 ।। ब्रह्मा और इन्द्र के बल को चूर्ण कर जिनकी (अपने) शरीर की भाँति रक्षा की थी, उन्हीं हम गोपियों को उन्होंने तिनके की तरह त्याग दिया। तुलसीदास जी के शब्दों में ( वह सखी कह रही है कि) वे प्रभु ऐसी मोहिनी डाल गये जिसके कारण इतना होने पर भी वे हमें अच्छे ही लगते हैं ।। 3 ।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बिरचत
  2. बोए
  3. ब्रजजन

संबंधित लेख

श्रीकृष्ण गीतावली -तुलसीदास
क्रम संख्या पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
1. बाल-लीला 1
2. गोपी-उपालम्भ 4
3. उलूखल-बन्धन 15
4. इन्द्रकोप-गोवर्धन-धारण 21
5. गोचारण अथवा छाक-लीला 40
6. यमुना तट पर वंशीवादन 24
7. शोभा-वर्णन 5
8. गोपी-विरह 29
9. भक्त-मर्यादा-रक्षण 71
पदों की वर्णानुक्रमणिका
1. अब सब साँची कान्ह तिहारी। 6
2. अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई। 8
3. अब ब्रज बास महरि किमि कीबो। 9
4. आजु उनीदे आए मुरारी। 26
5. आलि! अब कहुँ जनि नेह निहारि। 33
6. आली! टति अनुचित, उतरु न दीजैं। 52
7. ऊधो! या ब्रज की दसा बिचारौ। 40
8. ऊधो जू कह्यो तिहारोह कीबो। 42
9. ऊधो! यह ह्या न कछू कहिबे ही। 47
10. ऊधो हैं बड़े, कहैं सोइ कीजै। 53
11. ऊधो! प्रीति करि निरमोहियन सों को न भयो दुख दीन?। 63
12. ऐसो हौंहुँ जानति भृंग! 62
13. कबहुँ न जात पराए धामहिं। 5
14. कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी। 71
15. करि है हरि बालक की सी केलि। 32
16. कही है भली बात सब के मन मानी। 56
17. कान्ह, अलि, भए नए गुरू ग्यानी। 54
18. काहे को कहत बचन सँवरि। 61
19. कोउ सखि नई बात सुनि आई। 39
20. कौन सुनै अलि की चतुराई। 59
21. गहगह गगन दुंदुभी बाजी। 73
22. गावत गोपात लाल नीकें राग नट हैं। 24
23. गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं। 28
24. गेकुल प्रीति नित नई जानि। 25
25. छपद! सुनहु बर बचन हमारे। 66
26. छाँडो मेरे ललन! ललित लरिकाई। 13
27. छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू 2
28. जब ते ब्रज तजि गये कन्हाई। 35
29. जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें। 10
30. जो पै अलि! अंत इहै करिबो हो। 46
31. जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए। 11
32. टेरीं (कान्ह) गोबर्धन गैया। 22
33. ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ भोरें। 51
34. तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेंरें। 3
35. दीन्ही है मधुप सबहि सिख नीकी। 50
36. देखु सखी हरि बदन इंदु पर। 25
37. नहिं कछु दोष स्याम को माई। 30
38. ब्रज पर घन घमंड करि आए। 21
39. बिछुरत श्रीब्रजराज आजु 29
40. भली कही, आली हमहुँ पहिचाने। 25
41. भूलि न जात हौं काहू के काऊ। 45
42. महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै। 7
43. मधुकर! कहहु कहन जो पारौ। 41
44. मधुकर! कान्ह कही ते न होही। 48
45. मधुप! समुझि देखहु मन माही। 68
46. मधुप! तुम्ह कान्ह ही की कही क्यों न कही है? 49
47. ( माता) लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै। 1
48. मेने जान और कछु न मन गुनिए। 44
49. मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं। 4
50. मोको अब नयन भए रिपु माई! 69
51. ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि, 19
52. लागियै रहति नयननि आगे तें 34
53. लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन। 16
54. सब मिलि साहस करिय सयानी। 55
55. ससि तें सीतल मोकौं लागै माई री! तरनि। 36
56. सो कहौ मधुप! जे मोहन कहि पठई। 43
57. सुनत कुलिस सम बचन तिहाने। 64
58. संतत दुखद सखी! रजनीकर। 37
59. हरि को ललित बदन निहारु 15
60. हा हा री महरि! बारो, कहा रिस बस भई, 17
61. हे हम समाचार सब पाए। 57

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