श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग धनाश्री
(26) (श्यामसुन्दर के उदासीन-भाव का और अपनी उनके प्रति प्रीति-भावना का दिग्दर्शन कराती हुई एक सखी कहती है-) हरि ने (हमारे मनों को हरण करने वाले श्रीकृष्ण ने) यह बालकों के (घरौंदे के) सदृश खेल किया। उन्हें न प्रीतिरूपी भवन बनाने में हर्ष हुआ और न उसे उजाड़ने में विषाद ही हुआ, हँस-खेलकर (उदासीन की भाँति) अपनी राह चल दिये ।। 1 ।। वृन्दावन की बाड़ी (वाटिका) को बनाकर उसमें (उन्होंने अपने हाथों) जिस प्रेम की संजीवनी लता को बोया (लगाया) तथा स्नेह-सुधा से सींच-सींचकर बढ़ाया, उसी को, लोक-वेद (की मर्यादा) का तिरस्कार करके (लोक-वेद की मर्यादा के अनुसार अपने लगाये और बढ़ाये हुए पौधे को कोई नहीं काटता) खोदकर निकाल फेंका।। 2 ।। ब्रह्मा और इन्द्र के बल को चूर्ण कर जिनकी (अपने) शरीर की भाँति रक्षा की थी, उन्हीं हम गोपियों को उन्होंने तिनके की तरह त्याग दिया। तुलसीदास जी के शब्दों में ( वह सखी कह रही है कि) वे प्रभु ऐसी मोहिनी डाल गये जिसके कारण इतना होने पर भी वे हमें अच्छे ही लगते हैं ।। 3 ।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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