श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग धनाश्री
(27) (श्रीकृष्ण-विरह-कातर एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है) सखी! अब कहीं भी प्रेम मत देखो। विधाता हमारे प्रतिकूल है, इस बात को विचारकर अब समझने (शान्ति धारण करने) और सहने में ही हमारी भलाई है।। 1।। हमारे प्रियतम सत्य, स्नेह शील, शोभा, सुख आदि सभी गुणों के समुद्र है। (परंतु आज तक) कभी किसी ने कहीं यह नहीं देखा-सुना कि जल (समुद्र) कभी मछली का वियोगी बना हो (मछली जैसे जल के वियोग में तड़प-तड़प कर मर जाती है, वैसे समुद्र भी मछली के बिछोह में कभी दुःखी हुआ हो)। (इसी प्रकार श्यामसुन्दर भी समुद्र की भाँति सर्वगुणनिधि होने पर भी हमारे कुब्जा को जो भला-बुरा कहती हैं वह भी अपने स्त्रियोचित बुरे स्वभाव के कारण ही। अहितकारी (शत्रु) की विनय भी विष से कहीं अधिक भयानक होती है और स्नेही (मित्र) की गाली भी अमृत के समान होती है।। 3 ।। (यों) करोड़ो कुतर्क करके अपने दुष्ट (मनो) बल के भारी भरोसे पर मन को श्यामसुन्दर से लौटाती हूँ, परंतु तुलसीदास जी कहते हैं कि जगत में उस (मन) को कान्हकुँवर के समान दूसरा कोई दीखता ही नहीं (इससे वह लौटाने पर भी नहीं लौटता) ।। 4 ।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कहौ निज
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