श्रीकृष्ण गीतावली
2. गोपी-उपालम्भ
राग केदारा
(7) (ग्वालिनी फिर आकर श्रीयशोदा मैया को उलाहना देने लगी-) व्रजरानी! तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अपने व्रज को सँभालो। मैंने (बहुत) सहकर देख लिया, तुमसे भी कहा, पर अब तो नाकों आ गयी! रोज-रोज कौन (इस प्रकार) क्षति सहेगा! ।। 1 ।। ग्वालिनी तो दूध-दही-माखन से ही सुखी रहती है वही जब न रहे (सारा का सारा ही तुम्हारा कन्हैया बरबाद कर दे) तब क्योंकर जीया जाय। यदि मेरी बात पर विश्वास न हो तो अपने इस लाड़िले को साथ लेकर आप स्वयं मेरे घर पधारें और (सब अपनी आँखो से) देख लें ।। 2 ।। अत्यन्त अनीति अच्छी नहीं होती। अब भी इसे समझा दें। तुलसीदास जी के शब्दों में यशोदा मैयाप्रभु को हृदय से लगाकर कहती हैं- बेटा! तेरी बलैया लेती हूँ, (आगे) कभी ऐसा न करना ।। 3 ।। |
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