श्रीकृष्ण गीतावली
2. गोपी-उपालम्भ
राग आसावरी
(4) (श्रीकृष्ण कहने लगे-) मैया! ये मुझ पर झूठ–मूठ दोष लगाती हैं। इन्हें तो पराये घर भटकने की टेव पड़ गयी है, इसी से ये (अपने यहाँ आने के लिये) तरह-तरह की युक्ति रचा करती हैं ।। 1 ।। इनके लिये मैंने खेलना तक छोड़ दिया, तब भी इनसे बच नहीं पाते। ये (स्वंय ही अपने) बर्तनों को फोड़कर, दही-दूध में हाथ डुबाकर उलाहना देने चली आती हैं ।। 2 ।। कभी तो बालकों को रूलाकर, उनके हाथ पकड़कर बहाना बनाती हुई उठ-उठकर दौड़ी आती हैं। करती तो हैं सब कुछ आप और दोष मढ़ती हैं दूसरे के सिर! बातों में तो ये ब्रह्मा जी को भी मात कर देती हैं (ऐसी चतुर हैं) ।। 3 ।। मेरी कैसी आदत है, यह तो (मैया! तू) हलधर भैया से पूछ ले, निरन्तर वे मुझे अपने साथ खेलाते हैं। मुझे तो वे बालक अच्छे ही नहीं लगते जो दूसरे के प्रति अन्याय करते हैं। फिर भला, मैं स्वयं कैसे किसी के साथ अन्याय करने जाता? ।। 4 ।। श्रीकृष्ण की वचन-चातुरी सुन-सुनकर ग्वालिनें हँस–हँसकर अपना मुँह छिपा लेती हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि बालगोपाल (यशोदानन्दन) के सुन्दर लीला यश का मुनिगण गान करते हैं ।। 5 ।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पाठभेद- सुर
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