श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग केदार
(54) (एक प्रेम-विह्वलहृदया सखी बोली-) भ्रमर! मैं भी ऐसा जानती हूँ कि एकांगी प्रेम करके किसी ने भी सुख नहीं पाया है।। 1 ।। जिसके लिये चातक (दिन-रात आर्त होकर अनन्य भाव से) रट लगाता रहता है, उस मेघ को भला, कौन-सी चिन्ता होती है। मछली जल के बिना तड़प-तड़प कर शरीर छोड़ देती है, पर जल स्वभाव से ही प्रीतिरहित रहता है (उसको मछली की पीड़ा का कोई विचार नहीं होता) ।। 2 ।। जिस (मणि) के वियोग में सर्प (अत्यन्त) व्याकुल हो जाता है, उस मणि को (सर्प की पीड़ा से) कुछ भी पीड़ा नहीं होती। सुन्दर संगीत पर मुग्ध हरिण को प्रेमियों की गति है। वे एक-एक गुण पर मुग्ध होकर प्रेमवश प्राणत्याग कर देते हैं) ।। 3 ।। हमारे श्यामसुन्दर मेघ हैं, उनका (अतुलनीय प्रेमाकर्षणरूप) गुण जल है, उनकी रूपमाधुरी मणि है तथा मुरली की (मनोहर) तान तरंग (सुन्दर संगीत) है। (अतएव चातक, मछली, सर्प, हरिन आदि की तरह) बहुत प्रकार से हमारा मन उनमें लग गया है। तुलसीदास जी कहते हैं- कि (अब) इस रस का भंग (श्रीकृष्ण के प्रेम का त्याग) कैसे हो सकता है?।। 4 ।। |
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