श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग बिलावल
(38) तुलसीदास जी के शब्दों में दूसरी सखी कहती है- सखी! तुमने ठीक ही कहा है, हम भी उन्हें पहचान गयी हैं। (सचमुच) वे सब कुछ हरण करने वाले निर्गुण और निर्लेप ही हैं वे किसी के अपने नही हैं, निपट निर्दयी हैं। अपना प्रयोजन सिद्ध करने में बड़े निपुण हैं ।। 1 ।। (तभी तो) व्रजवासियों के विरह और नन्दरानी की प्रीति की परवा न करके कुब्जा को वरण करने में उन्हें तनिक भी लज्जा नहीं आयी। श्यामसुन्दर की इस प्रीति की रीति (कपट-प्रेम) को जानकर भी जो हृदय में पछताये, वह पगली है।। 2 ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि इतने पर भी मनोहर सौन्दर्य पर लुभाये हुए लालची नेत्र कोई भी सीख नहीं सुनते (उन्हीें को खोजते रहते हैं) कन्हैया में यह विशेषता हैं। वे (सदा) अच्छे ही लगते है, (इसी से) मन में समाये रहते हैं ।। 3 ।। |
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