श्रीकृष्ण गीतावली
2. गोपी-उपालम्भ
राग गौरी
(11) (ग्वालिनी ने व्यंग से कहा-) कान्हा! जब तक मैं तुम्हारे गुणों को छिपाये हुए हूँ, तभी तक सब लोग यह विश्वास कर रहे हैं कि सचमुच तुम भयभीत हो सिसकियाँ भरकर रो रहे हो ।। 1 ।। (एक तो वैसे ही) तुम परले सिरे के नंगेपन तथा जाल रचने में कुशल हो (फिर) महरि (यशोदा) का मुँह देखकर अब और भी फरेब रच रहे हो। तुम चुप नहीं रहते, कुछ न कुछ कहना ही चाहते हो; पर (याद रखो) कुठिला (अनाज रखने की मिटृी की कोठी) धोने से तो कीचड़ ही होगा (तुम्हारी करतूत और भी सामने आ जायगी) ।। 2 ।। (ग्वालिनी की बात सुनकर श्यामसुन्दर कहने लगे-) 'क्या गरज रही हो और तर्जनी अँगुली दिखाकर डाँट रही हो और (फिर) नेत्र के कोये से सैन (संकेत) करके बरज भी रही हो ?' तुलसीदास जी कहते हैं कि माता यशोदा पुत्र की यह चतुराई देखकर आनन्द से खिल उठती है और ग्वालिनी मन ही मन प्रेम से मुग्ध होकर थकित हो जाती है।। 3 ।। |
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