श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(44) (एक गोपी खिन्न मन से बोली-) उस की सीख अब व्रज में कोई भूलकर भी नहीं सुनेगा। जिसकी कथनी (कथन) और रहनी (आचरण) में मेल नहीं है (कहना कुछ है और करना कुछ और ही है), भ्रमर! उसकी बात (की निस्सारता) सुनते की थोड़े में ही समझ ली जाती है।। 1 ।। वह स्वंय तो सदा-सर्वदा कमल-मकरन्द के सुधा-सरोवर में अपने हृदय को डुबाये रखता है, पर हमसे कहता है कि आकाश में कुआँ खोदकर (उसके मिथ्या) जल से स्त्रान करने से (निर्गुण ब्रह्म के ध्यान से) विरहजनित कष्ट दूर को जायगा ।। 2 ।। जिस गाँव में धान होता है, उसका पता पुआल (धान के सूखे डंठल) देखने से ही लग जाता है। इसी प्रकार अमुक व्यक्ति में ज्ञान कितना है, इसका पता इसी बात से लगता है कि उसका मन विषयों से कितना मुड़ा (हटा) हुआ है। (भ्रमर के ज्ञान की थाह उसकी रसलोलूपता से ही लग जाती है।) तुलसीदास जी कहते हैं, अधिक कहने से रस नहीं रह जायगा, जैसा गूलर के फल को फोड़ने से रस नहीं निकलता (कीड़े ही दिखायी देते हैं) ।। 3 ।। |
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