(25)
नहिं कछु दोष स्याम को माई।
जो दुख मैं पायों सजनी सुन
सो तौ सबै मन की चतुराई ।। 1।।
निज हित लागि तबहिं ए बंचक
सब अंगनि बसि प्रीति बढ़ाई।
लियो जो सब सुख हरि अँग-सँग को,
जहँ जेहि बिधि तहँ सोइ बनाई ।। 2 ।।
अब नँदलाल गवन सुनि मधुबन,
तनुहि तजत नहिं बार लगाई।
रुचिर रूप-जल महँ रस सो ह्वै[1]।
मिलि, न फिरन की बात चलाई ।। 3 ।।
एहि सरीर बसि सखि वा सठ कहँ,
कहि न जाइ जो निधि फिरि[2] पाई।
तदपि कछू उपकार न कीन्हो,
निज मिलन्यौ तहिं मोहि लिखाई ।। 4 ।।
आपु मिल्यो यहि भाँति जाति तजि,
तनु मिलयो जल पय की नाई।
ह्वै मराल आयो सुफलक सुत,
लै गयो छीर नीर बिलगाई ।। 5 ।।
मनहूँ[3] तजी कान्हहूँ[4] त्यागी,
प्रानौ चलिहैं परिमिति पाई।
तुलसिदास रीतेहु तन ऊपर
नयननि की ममता अधिकाई ।। 6 ।।
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