(17)
ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि,
डारि दै घरबसी लकुटी बेगि कर तें।
कछु न कहि सकत, सुसुकत सकुचत,
डरहू को डर कान्ह डरै तेरे डर तें ।। 1 ।।
कहो मेरो मानि, हित जानि, तू सयानी बड़ी,
बड़े भाग पायो पूत बिधि हरि हर तें।
ताहि बाँधिबे को धाई, ग्वालिन गोरस बहाई
लै लै आई बावरी दाँवरी घर-घर तें ।। 2 ।।
कुलगुरु तिय के बचन कमनीय सुनि
सुधि भए बचन जे सुने मुनिबर तें।
छोरि, लिए लाइ उर, बरषैं सुमन सुर
मंगल है तिहुँ पुर हरि हलधर तें ।। 3 ।।
आनँद बधावनो मुदित गोप-गोपीगन,
आजु परी कुसल कठिन करवर तें।
तुलसी जे तोरे तरु, किए देव दियो बरु,
कै न लह्यो कौन फरु देव दामोदर तें ।। 4 ।।
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