श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(41) अरे भ्रमर! तुम्हारी ये बातें श्रीकृष्णचन्द्र की कही हुई नहीं है। या (सम्भव है) हमारा सर्वस्व हरण करने वाले श्यामसुन्दर ने अपनी प्रेम विरहिणी गोपियों को ये (कुब्जा से) नयी सीखी हुई बातें उपदेश के रूप में कहला भेजी हैं। इसी से अब तक जो हमसे प्रत्यक्ष प्रेम करते थे अब वे यह निर्गुण-निर्लेप शिक्षा देने लगे ।। 1 ।। (जान पड़ता है) कुब्जा ने (कूबर के रूप में) अपनी पीठ पर इन्हीं बातों को संग्रह करके बगुचे के रूप में रखा था। अब उस सयानी ने श्यामसुन्दर नागर-शिरोमणि एवं शोभा के समुद्र हैं। जिन्होंने अपनी (मन्द) मुस्कान से जगत की (समस्तद्ध तरूणियों को मोह लिया, (उन्हीं) (सब के हृदय को लूट लेने वाले) ठग को आज कुब्जा ने ठग लिया और अपनी ज्ञान की गँठरी देकर उनसे सुन्दर स्वरूप (अथवा उनका प्रेम) ले लिया ।। 3 ।। उसकी यह निर्गुण की साड़ी बड़ी ही सूक्ष्म है, इसको हमने देख लिया है; इसे (तुम) तह लगाकर रख दो, हम तुम्हारी बलिहारी जाती है। तुलसीदास जी कहते हैं- यह वस्त्र तो नगर की रहने वाली रमणियों के ही योग्य है, जिन्हें सब कुछ भी शोभा दे रहा है (क्योंकि सौन्दर्यसागर श्रीकृष्ण उनके वश में हैं) ।। 4 ।। |
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