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मोको अब नयन भए रिपु माई!
हरि-बियोग तनु तजेहिं परम सुख,
ए राखहिं सो करि बरिआई ।। 1 ।।
बरु मन कियो बहुत हित मेरो,
बरहिं बार काम दव लाई।
बरषि नीर ये तबहिं बुझावहिं
स्वारथ निपुन अधिक चतुराई ।। 2 ।।
ग्यान परसु दै मधुप पठायो
बिरह बेलि कैसेहुँ कटि[1] जाई।
सो थाक्यो बरू[2] रह्यो एकटक
देखत इन की सहज सिंचाई ।। 3 ।।
हारतहूँ न हारि मानत सठ
सखि! सुभाव कंदुक की नाई।
चातक जलज मीनहु ते भोरे,
समुझत नहिं उन की निठुराई ।। 4 ।।
ये हठ निरत दरस लालच बस,
परे जहाँ बल बुधि न बसाई।
तुलसिदास इन्ह पै जो द्रवहिं हरि
तौ पुनि मिलहिं बैरु बिसराई ।। 5 ।।
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