श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग सोरठा
(33) गोपियाँ कहती हैं- उद्धव जी! (पहले) इस व्रज की दशा पर तो विचार करो, फिर अपनी इस योग कथारूप सिद्धि का विस्तार (बखान) करना ।। 1 ।। तुमको माधव ने जिस कारण से हम लोगों के पास भेजा है, उसका मन में विचार करो। (श्रीकृष्ण की दी हुई) विरह व्यथा में और तुम्हारे परमार्थ (कैवल्य मोक्ष) में कितना अन्तर है, यह जानते हो या नहीं? ।। 2 ।। तुम तो परम चतुर हो, श्यामसुन्दर के निजी सेवक हो और सदा उनके पास ही रहते हो (फिर भी) जल में डूबते हुए को फेन का सहारा लेने के लिये बार-बार क्या उपदेश दे रहे हो? (हम विरहसागर में डूबी हुई हैं) हमें परमार्थरूपी फेन के सहारे बचाना चाहते हो (धन्य है तुम्हारी चतुरता को!) ।। 3 ।। (बताओ तो भला,) हम उस अत्यन्त ललित मनोहर मुख कमल को कैसे भूल जायँ? तुम्हारी योग की सारी युक्तियों को तथा (सालोक्य आदि) विविध प्रकार की मुक्तियों को हम उस मोहन की मुरली पर निछावर करती हैं ।। 4 ।। जिस हृदय में श्यामसुन्दर ठसाठस भरे हैं, वहाँ तुम्हारें निर्गुण का प्रवेश कैसे हो सकता है? तुलसीदास जी के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं- उस भजन को निकाल बाहर करो, जिसमें श्यामसुन्दर के सिवा कोई दूसरा प्रिय लगता हो ।। 5 ।। |
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