श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(49) (दूसरी गोपी बोली-) सखी ने यह बहुत अच्छी बात कही है। यह सभी के मन को प्रिय लगी है। प्रेम की यह रीति जगत्प्रसिद्ध है कि प्रेमास्पद का प्रेमपात्र भी प्रेसास्पद के समान ही प्रिय होता है।। 1 ।। आभूषण (सर्प), भस्म (चिता की राख) और विष (गले के हलाहल विष) को त्यागकर किसने अपने हृदय में भगवान शंकर की मूर्ति का ध्यान किया है? (गंगा जी में मिली हुई) कर्मनाशा के जल को छानकर (अलग करके) किसने गंगा जल में स्त्रान अथवा (उसका) पान किया है ? ।। 2 ।। पूँछ से प्रेम और सींग से विरोध- इस प्रकार के विचार से अपने ही हित की हानि होती है (कुब्जा सींग के समान टेढ़ी है और हमारे प्रियतम पूँछ की तरह सीधे एवं उसके अनुगामी हैं) (अतएव) कन्हैया और कुब्जा (दोनों) से हमें सदा-सर्वदा मन, वचन और कर्म से (छल छोड़कर सच्चा) प्रेम करना चाएये ।। 3 ।। तुलसीदास जी कहते हैं- अरी सखी! अब (हमें कुब्जा के प्रति ईर्ष्यारूप) सारी कुचाल छोड़ देनी चाहिये, इससे सारी बिगड़ी बात सुधर जायगी। अब (हमें) इस भ्रमर को (उद्धव जी को) आगे करके शुभ दिन देखकर (श्रीकृष्ण और कुब्जा को मनाकर लाने के लिये) मथुरा को चल देना चाहिये ।। 4 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज