श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग बिलावल
(37) तुलसीदास जी के शब्दों में एक सखी दूसरी सखी से कहती है- अरी सजनी! मेरी समझ से अब मन में और कुछ विचार नहीं करना चाहिये। कुब्जारमण श्रीकृष्ण ने जो कुछ भ्रमर से कहा है, उसी उपदेश को पूरा ध्यान देकर सुना जाय ।। 1 ।। क्यों (किसी पर) क्रोध करती हो, किसको दोष दोगी? अपने नेत्रों का बोया हुआ ही काटना पड़ रहा है (नेत्रों ने जा श्याम के रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध होकर प्रेम का बीज बोया था, उसी का फल यह वियोग.दुःख है)। शरीररूपी काठ में पहले भोगे हुए सुख रूपी कीड़े छेद कर रहे हैं, अब बार-बार उन्हीं की याद करके हम लोग दिन-रात सिर धुनती रहें ।। 2 ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि (इतने पर) भी इन (नेत्रों) की पवित्र प्रेम में रुचि अधिकाधिक बढ़ती ही जा रही है, चाहे जितना सिर धुनो और बरजो, पर ये (नेत्र) तो मानते नहीं (उन्हीं को देखने के लिये आकुल रहते हैं), अतः अब तो नन्दनन्दन के लिये उनके विषम वियोग की अग्नि में शरीर को होम देना है।। 3 ।। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज