श्रीकृष्ण गीतावली
8. गोपी-विरह
राग मलार
(47) (दूसरी सखी बोली-) भ्रमर! कन्हैया (कुब्जा के शिष्य बनकर अभी) नये ही ज्ञानी गुरु हुए हैं। तुम्हारे कथन से और अपनी समझ से हमने अपने हृदय में समझ लिया कि यह बात सत्य है।। 1 ।। कुब्जा ने उनके शरीर में चन्दन लगाकर उन्हेंं अपना लिया (अपने वश में कर लिया)। (इस पर) ऐसी कुछ अप्रिय खबर उड़ी (फैली) है कि जैसे बाघ-जुड़ानी (बाघ को बेहोश करके वश में करने वाली) जड़ी सुँघाकर खेल ही खेल में (इन किसी के वश में न आने वाले) योगीराज को वश में कर लिया है।। 2 ।। व्रज में बस कर उन्होंने (हम ग्वालिनों के साथ) रास-विलास किया और (अब) मथुरा में (जाकर) दसी से प्रेम जोड़ लिया। (वे स्वयं ही इस स्थिति में है पर) उन समझदारों के शिरोमणि ने हम वियोग-पीड़िता गोपियों को योग साधन के योग्य समझा है।। 3 ।। तुलसीदास जी कहते है- सखी! (तुम्हें) कहना कुछ और होगा किन्तु (आवेश में) कहा जायगा कुछ और ही, अतः चुप रहो।( क्या किया जाय,) प्रियतम (श्यामसुन्दर) तो पराये वश में हैं और तुम प्रियतम के हाथ बिक चुकी हो ।। 4 ।। |
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ कछुक कुचाह
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