भागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प श्री राधासुधानिधि में एक श्लोक है- गौरांग म्रदिमा स्मिते मधुरिमा नेत्रांचले द्राघिमा हे श्रीराधे! आपके गौर अंगों की मृदुलता, मन्द हास्य की माधुरी, नेत्र प्रान्त की विशालता, उरोजों की गुरुता तथा कटि प्रदेश की कृशता, चाल की मन्दना और नितम्बों को स्थूलता, भृकुटी की वक्रता अधरों की लालिमा तथा आपके हृदय में रस की जो स्तब्धता है, वह मेरे ध्यान का विषय होवे। जैसे प्रेमोद्रेक में श्रीचैतन्य महाप्रभु कभी-कभी मूर्च्छित होते थे, ऐसे राधारानी के जीवन में दो अवस्थायें आती थीं, एक तो उन्माद और दूसरी मूर्च्छा। उन्माद अवस्था तो सम्पूर्ण गोपांगना जन हैं, श्रीराधारानी के हृदय में जो जड़िमा है, वह श्रीमद्वृन्दावन धाम है। भक्तों ने कहा है- रे मन बृन्दा विपिन निहार। विपिन राज सीमा के बाहर-बाएं श्रीकृष्ण भी हों तो मत निहारों, दाएं हों तो निहारों। अर्थात श्रीवृन्दावन के श्रीकृष्ण को निहारो। इसलिए कहते हैं कि यहाँ पाँच श्रीकृष्ण हैं- एक द्वारकाधीश श्रीकृष्ण, दूसरे मथुरानाथ श्रीकृष्ण, तीसरे ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण, चौथे वृन्दावन श्रीकृष्ण और पाँचवे नित्यानिकुंजमन्दिराधीश्वर श्रीकृष्ण। ‘व्रजे बने निकुंजे च श्रैष्ठयमत्रोत्तरोत्तरम् व्रज, वन और निकुंज में भी उत्तरोत्तर श्रैष्ठय हैं। मकरन्दकोटि में आती हैं श्री राधारानी बृषभानु, नन्दिनी। इस तहर श्रीराधारानी के हृदय की जो जड़िमा है- सर्वोत्कृष्ट अनुराग की चरमावस्था वही श्री वृन्दावन धाम है। फिर श्रीमद्वृन्दावन धाम के सेवन से रति, प्रीति प्राप्त हो तो आश्चर्य की बात नहीं। इसलिये प्रिया-प्रियतम निकलते हैं, तो सब लताएँ उनको मार्ग देती हैं। जहाँ जो आवश्यक समझती हैं, भावों का आविर्भाव करती हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राधासुधानिधि 74
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