भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
सगुण तत्त्व
जगत और जीवन सदा से धर्म एवं दर्शन की समस्या है। यह जो कुछ संसार दीखता है, क्या है? क्यों है? इसका आधार, कर्ता, प्रेरक कौन है? कैसा है? साथ ही हमारा अपना जीवन- हम स्वयं क्या हैं? क्या उद्देश्य है इस जीवन का? जगत को हम अपनी ज्ञानेन्द्रियों से जैसा देखते हैं, वह वैसा ही है या नहीं- कोई उपाय यह जानने का नही है। सब प्राणी जगत को ऐसा ही नही देखते। जन्मान्ध के लिए रूप का – रंगों का अस्तित्व ही नहीं है। ऐसे ही जिन प्राणियों में घ्राणेन्द्रिय या श्रवणेन्द्रिय नहीं हैं, उनके लिए गन्ध अथवा शब्द नहीं हैं। इन्द्रियों की शक्ति बाह्य साधनों से अथवा योग से बढ़ायी जा सकती है; किन्तु अन्तत: जगत के देखने का माध्यम इन्द्रियाँ ही रहेंगी। इन्द्रियाँ एक ही वस्तु को पाँच प्रकार से दिखलाती हैं। एक ही वस्तु में नेत्र, श्रोत्र, त्वचा, रसना, नासिका- रूप, शब्द, स्पर्श, रस और गन्ध पृथक-पृथक बतलाती हैं। साथ ही यह भी कि इन्द्रियों की सूचना परिवर्तन शील है। जो पुष्प आज सुन्दर, सुरंग, सुकुमार दीखता है- वही कल सौन्दर्य, रंग, सौकुमार्य खोया दीखता है। अर्थात दृश्य जगत परिवर्तनशील है, अथ च अनित्य है। जो एक रूप नहीं है जो बदलता रहता है, उसकी खोज वहाँ करके किसी परिणाम पर पहुँचा नहीं जा सकता। हमारे पास पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। उनसे हम शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का अनुभव करते हैं, अत: इनके आधार रूप में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से बना जगत को मानते हैं। पंचेन्द्रिय सम्पन्न प्राणी जहाँ जायेगा,उसे पञ्चतत्व ही उपलब्ध होंगे। पृथ्वी जल में घुल जाती है, जल उष्णता से सूख जाता है, उष्णता वायु में लीन हो जाती है और वायु गति खो दे तो शून्य से एक हो जाता है। इस प्रकार आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी बनी होगी- यह अनुमान सहज किया जा सकता है। यह सब चिन्तन करता है मन। मन समाहित हो, या लय हो तो कुछ पता नहीं लगता। साथ ही प्रबल संकल्प-शक्ति सम्पन्न योगी का मन पदार्थों में-जगत में यथेच्छ परिवर्तन कर लेता है। वह एक पदार्थ को दूसरे में बदल सकता है अथवा नवीन पदार्थ का आविर्भाव कर सकता है, यही बात कहती है कि पदार्थ की मूल स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। पदार्थ मानस हैं। जगत मानस-सृष्टि है। जगत किसी मानस-सृष्टि है? प्रश्न सहज है और यह स्पष्ट है कि हमारी, तुम्हारी अथवा व्यक्तियों की यह मानस-सृष्टि नहीं है। योगी का प्रबल संकल्प भी थोड़े पदार्थों में ही परिवर्तन कर सकता है। सम्पूर्ण सृष्टि कर देना या सृष्टि को मिटा देना व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है। अत: सोचना ही पड़ता है कि कोई सृष्टि, स्थिति एवं संहार का संकल्प करने वाला है और जो कर्ता है वह सगुण तो होगा ही। व्यक्ति में अपना क्या है? पृथ्वी, जल, उष्णता, गति और आकाश ये व्यष्टि के नहीं है। ये समष्टि के हैं। तब मन व्यक्ति का कैसे हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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