भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंस की कृपा
‘युवराज ने क्या कहा है?’ आज देवकी जी भी कंस को भैया नहीं कह सकी थीं। ‘हा! तो इतना ही कि इससे मुझे कोई भय नहीं है, अत: इसे लौटा ले जाइये!’ वसुदेव जी ने कहा- ‘किन्तु मेरा हृदय इस पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। तुम जानती हो कि मेरे हृदय में आकरण आशंका नहीं उठती। युवराज कब अपना निर्णय परिवर्तित कर देंगे, यह कुछ कहा नहीं जा सकता।’ वसुदेव जी इतना कहकर अन्त:पुर से निकल आये। महिलाओं का उत्साह समाप्त हो गया। देवकी जी के अंक में जाकर वह शिशु चुपचाप उनका अमृत पयपान करने लगा था। माता को अपने मृत्यु के मुख से लौटे लाल को देखने से ही अवकाश नहीं था। ‘इसका जातकर्म?’ किसी ने अन्त:पुर में प्रश्न किया। ‘नान्दीमुख श्राद्ध तो हो नहीं सकता।’ एक ने कहा-वह नालोच्छेदन के पूर्व होता है। आपत्तिकाल के कारण नालोच्छेदन तत्काल करना पड़ा, अत: अब जातकर्म कैसा? अब तो जात-सूतक प्रारम्भ हो चुका है। अब तो यह बारह दिन का हो जाय तभी सब कर्म एक साथ किये जायेंगे।’ ‘महर्षि गर्गाचार्य जी भी तभी पधारेंगे?’ किसी ने पूछा। ‘नालोच्छेदन के पूर्व आ जाते तो जाते। देव-पितृ पूजन, दान, श्राद्ध तभी तक सम्भव रहता है।’ नारियाँ इस प्रकार की चर्चा से दु;खी-क्षुब्ध ही हुईं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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