भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्री बलराम विवाह
भगवान संकर्षण की नित्य सहचरी हैं देवी नाग लक्ष्मी। उनके आराध्य भगवान कामपाल धरा पर पहुँच गए तो उन्हें भी आना ही था। ब्रह्मलोक में ब्रह्मा जी महाराज ककुदमी को पृथ्वी पर जाकर अपनी पुत्री भगवान अनन्त को देने के लिए कह रहे थे, तभी नित्यलोक से देवी नागलक्ष्मी धरा पर आते हुए ब्रह्मलोक पहुँची। उन्होंने ब्रह्मा जी की बात सुन ली थी। एक बार रेवती को देखा। मन में ही कहा- अच्छा! इस बार यह मेरे व्यक्त देह का माध्यम बनेगी। वे रेवती में प्रविष्ट होकर एक हो गयीं। रेवती जी ने केवल एक अतर्क्य आनंद की लहर अपने भीतर उठ कर शांत होती अनुभव की। जय जयाच्युत देव परात्पर स्वयमनन्त दिगन्तगत श्रुत। अपने पीतवसन, मेघश्याम छोटे भाई के साथ भगवान संकर्षण यमुना तट पर आए थे। प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर यमुना पुलिन पर टहलने चले ही थे कि गगन से स्तवन का मेघ गंभीर स्वर गूंजा। दोनों भाइयों ने दृष्टि उठाई। सहसा एक कल्पनातीत ऊंचाई के पुरुष एक वैसी ही प्रलम्ब काय, किंतु अत्यल्प कृशांगी ज्योतिर्मयी कन्या के साथ आकर सम्मुख खड़े हो गए। दोनों भाई ऊपर मुख उठाए देखते रह गए उन दोनों की ओर। कठिनाई से उन आगतों के टखने तक ऊंचाई में पहुँचते थे। आप महानुभाव! भगवान संकर्षण ने ही पूछा। आकृति की यह अद्भुत वृहत्तता कहाँ इन दोनों भाइयों को चकित करती हैं। मैं इस मन्वन्तर की प्रथम चतुर्युगी के सतयुग में उत्पन्न कुशस्थली–नरेश महाराज रेवत का पुत्र ककुदमी हूँ और यह मेरी यज्ञकुण्ड समुद्भवा अयोनिजा पुत्री रेवती है। उन आगत पुरुष ने कहा– प्रजापति भगवान ब्रह्मा जी ने मुझे आपका परिचय दिया है। उन्होंने ही आदेश दिया है कि मैं आपको अपनी पुत्री प्रदान करूं। इसका पाणि स्वीकार करके आप मझे अनुगृहीत करें। महाराज! आप सूर्यवंश में उत्पन्न परम प्रसिद्ध पुण्य पुरुष हैं। श्रीकृष्ण चंद्र बोल उठे– आपके साथ संबंध होना गौरव की बात है। मैं अग्रज की और से इस संबंध को स्वीकारता हूँ। बड़े भाई को बोलने का अवसर नहीं रह गया। अनुज ने तो इतनी शीघ्रता से स्वीकृति दे दी जैसे उत्सुकतापूर्वक इस संबंध की प्रतीक्षा ही करते रहे हों। आप इसका हाथ ग्रहण करें। महाराज अपनी कन्या का दाहिना हाथ पकड़ कर श्री बलराम की ओर बढ़ाया–आप देखते ही हैं कि धरा अब मेरे रहने योग्य नहीं रही। मैं आप दोनों से अनुमति लेकर इसी समय हिमालय में तप करने जाना चाहता हूँ। इसके सविधि विवाह में मेरी उपस्थिति अनावश्यक है। इससे आतंक, असुविधा, उत्पीड़न ही बढ़ेगा और यह मुझे प्रिय नहीं है। बात ठीक थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गर्ग संहिता, गो. 10 - 43
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