भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंसारि
‘निकालो इन्हें। शीघ्र निकाल दो यहाँ से।’ क्रोध से उन्मत्त कंस नहीं देखता कि उसकी आज्ञा कोई सुनता भी है या नहीं। उनके मन्त्रियों तक में किसी ने हिलने का नाम नहीं लिया। कंस कितना भी क्रोध में पागल हो चुका हो, स्वयं इनके समीप जाने का संकल्प उसके मन में कभी नहीं उठा। न पहले यह साहस था–न अब आया। उसके मन की बड़ी कामना अब यही रह गयी है कि ये नगर से निकाल दिये जावें–निकाल दिये जा सकें। ‘दुर्बुद्धि नन्द को बाँध लो। गोपों की सब सम्पत्ति छीन लो।’ कंस चिल्ला रहा है। गला फाड़कर पूरी शक्ति से चिल्ला रहा है। गला फाड़कर पूरी शक्ति से चिल्ला रहा है। उसकी आज्ञा कोई सुनता है या नहीं, यह देखने की शक्ति अब उसमें नहीं है। ‘क्या बकवाद है? कौन चिल्ला रहा है?’ बालक खड़े होकर चौंककर देखने लगे थे। उनका मुख तमका– ‘यह दुष्ट बाबा को बाँधने को कहता है?’ बड़ा ऊँचा मंच है कंस का। बालक वहाँ तक लकुट भी नहीं फेंक सकते। वे क्रोध में भरे घूर रहे हैं। ‘वसुदेव को भी मार दो। बड़ा दुर्जन है वह। बहुत कुटिल है।’ कंस चिल्लाये जा रहा है– ‘मेरे पिता उग्रसेन को उसके भाई और अनुचरों के साथ मार दो। वह भी मेरे विरोधीजनों का ही पक्षपाती है। मार दो। इन सब वृष्णिवंशियों को मार दो।’ ‘यह बकता ही जा रहा है। सभी गुरुजनों को अपशब्द कह रहा है।’ श्रीबलराम ने हुँकार की और छोटे भाई की ओर देखने को घूमे; किन्तु तब तक तो कृष्णचन्द्र उछलकर कंस के उस ऊँचे मंच पर पहुँच चुके थे। उनके धक्के से सामने लगा मंच का दुर्बल पर्दा टूट गिरा था। ‘मेरा काल! मेरा शत्रु आ गया।’ कंस ने झपटकर ढाल-तलवार उठा ली और मंच पर ही एक किनारे कूदकर खड़ा हो गया। वह पैंतरे लेने लगा। इधर से उधर कूदता है और आघात करना चाहता है। लेकिन आघात तो तब करे जब अवसर मिले। दो क्षण भी तो नहीं मिले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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