भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
दर्जी की कला कृतार्थ हुई
गोप-बालक इस वृद्ध की शीघ्रता चकित देखते रहे। मथुरा में आने से अब तक उन्हें चकित करने वाला यह वृद्ध मिला। चकित तो देख रहे थे मथुरा के नागरिक। वह जिसके समीप से हटता था, उसके वस्त्र ऐसे बना के हटता था मानो उसके शरीर के माप का कंचुक उसने अनेक दिनों में सप्रयत्न सिया हो। रंग-बिरंगे वस्त्र। गोप-बालकों ने अटपटे ढंग से कई-कई वस्त्र चाहे जहां, चाहे जैसे लपेट लिये थे; किन्तु धन्य है गुणक की कला। वह उन्हें ऐसे सजाये जा रहा था मानों ये रंग और इतने वस्त्र-खण्ड ही उस शरीर को सुशोभित करने के लिए आवश्यक थे। कटे वस्त्रों के टुकड़ों का ढेर कर दिया उसने पथ पर। बहुत शीघ्र काम समाप्त करके गुणक हाथ जोड़कर राम-श्याम के सम्मुख खड़ा हो गया। श्रीकृष्णचन्द्र ने उसके कन्धे पर दक्षिण कर रखा और उनकी गम्भीर वाणी सबने सुनी– ‘तुमको इस लोक में अक्षय सम्पत्ति दी। तुम्हारा ऐश्वर्य कभी घटेगा नहीं। तुम्हारा शरीर सदा तरुणों के समान बलवान रहेगा। तुम्हारी सब इन्द्रिया आजीवन सशक्त रहेंगी। तुम्हारी स्मृति सतेज रहेगी।’ आश्चर्य–लोगों ने आश्चर्य से देखा कि गुणक के शरीर की झुर्रियां मिट गयीं। उसके केश भले काले नहीं हुए–पर उसका शरीर तो तरुणों की भाँति चमकने लगा है। कई क्षण लोग चकित देखते रह गये उसे। ‘मैं केवल आपकी और आपके जनों की सेवा करुँ।’ गुणक ने गद्गद् वाणी में माँगा। ‘अवश्य!’ यहाँ भी और परलोक में भी तुम मेरे स्वरूप में रहते हुए मेरे ही परिकर रहोगे।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने वरदान दिया। ‘भगवान वासुदेव की जय।’ नागरिकों की भीड़ में से किसी के कण्ठ से जयघोष उठा और सबके कण्ठों से गूँज गया यह जयघोष। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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