श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
82. यदुकुल को शाप
श्री द्वारिकाधीश के पुत्र जिसे इस प्रकार ले आवें, उस सौभाग्यवती के करों में कंकण, चूड़ी तक नहीं? लेकिन ऋषियों को इस सब निरीक्षण की आवश्यकता नहीं थी। उन्हें कुमारों की इस धृष्टता पर हँसी आ जाती, यही स्वाभाविक था, किन्तु वे सर्वज्ञ यहाँ आये ही थे उसकी प्रेरणा से जो समस्कीत सृष्टि का संचालन अपने संकल्प से करता रहता है और अब द्वारिका में बैठा इस लीला के उपसंहार का आयोजन चाहता है। उसकी प्रेरणा ही यहाँ इन कुमारों से यह अविनय करा रही थी और उसकी इच्छा ऋषियों से भी कुछ कराने की थी तो उसकी इच्छा पूर्ण हो। ब्रह्मण्यदेव, धर्मरक्षा के लिए अवतीर्ण श्रीकृष्णचन्द्र के कुमार ही इतनी धृष्टता, इतनी अविनय अपना लें कि लोक विश्रुत महर्षियों की इस प्रकार वंचना करें?’ यह सर्वज्ञता की परीक्षा, किन्तु जो परीक्षा देने नहीं आये, तीर्थ में दूर बैठे हैं, उनके समीप जाकर यह ठिठोली उनका अपमान तो था ही। इससे ऋषियों को बुरा लगा। महर्षि दुर्वासा ने क्रोधपूर्वक कह दिया -‘मूर्खों ! यह तुम्हारे कुल को नष्ट कर देने वाला मुशल उत्पन्न करेगी।' भूल होती है तो होती ही चली जाती है। उचित यह था कि सब विनम्र बनकर अपनी दृष्टता के लिए क्षमा माँगते। शापोद्धार की प्रार्थना करते तो कदाचित कोई मार्ग ऋषिगण निकाल भी देते किन्तु भय के मारे सब भाग खड़े हुए और थोड़ी दूर जाकर साम्ब ने साड़ी का उत्तरीय उतारकर फेंका। पेट पर बँधे उत्तरीयों में भार लग रहा था। उन्हें खोला तो लोहे का छोटा-सा पेट की चौड़ाई के बराबर लम्बा ठोस मुशल उन कपड़ों में से भूमि पर गिर पड़ा। ‘हाय ! यह क्या हुआ?’ सबके सब उस मुशल को देखते ही भय के कारण पीले पड़ गये। सहसा उसे छूने का साहस किसी में नहीं हुआ। ‘हम मन्द भाग्य हैं। हमने यह क्या किया?’ सबको कुछ सूझता नहीं था। ‘हम क्या कहेंगे अब नगर में जाकर? लोग हमको क्या कहेंगे?’ महर्षिगण तत्काल वहाँ से चले गये थे। वे दिव्यलोक वासी ऋषि गण, उन्हें कहाँ पैदल जाना था कि कोई दौड़कर उन्हें पा लेता। वे सब अदृश्य हो गये थे। उन्हें तो जनलोक या सत्यलोक जाना था। अब यह शाप देकर द्वारिका जाना उन्हें कैसे उपयुक्त प्रतीत होता? ‘करना क्या चाहिए?’ चिंतामग्न कुमारों को कुछ सूझ नहीं रहा था। अन्त में साहस करके उन्होंने मुशल उठाया और नगर में गये। श्रीबलरामजी अथवा श्रीकृष्णचन्द्र के सम्मुख जाने का उन्हें साहस नहीं हुआ। वे सब लोग गये महाराज उग्रसेन के समीप। उनसे उन्हें ऐसे अवसर पर क्षमा तथा वात्सल्य मिलने की सम्भावना थी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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