श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. विप्र-पुत्रानयन
एक दो नहीं, उस ब्राह्मण के नौ पुत्र इसी प्रकार मर गये। वह नवम पुत्र का शव उठाये राजद्वार पर आया था और उसे वहाँ रखकर जली-कटी सुनाकर लौटा जा रहा था। इस बार अर्जुन द्वारिका में थे। वे श्रीकृष्ण के समीप से उठे और ब्राह्मण को उन्होंने पुकारा- 'विप्रवर! आप आर्त्त हैं और कोई आपकी पुकार नहीं सुनता? यहाँ द्वारिका में कोई धनुर्धर नहीं है जो दुःखी ब्राह्मण की विपत्ति दूर कर सके? जहाँ स्त्री-पुत्र धन के वियोग से ब्राह्मण दुःखी हों, वहाँ का भूपति नहीं है। वह तो नट के समान राजा का केवल वेश धारण किये है। राजा का कर्तव्य ही है प्रजा की विशेषतः ब्राह्मण की रक्षा करना। अतः आप शोक त्याग दें। मैं अब आपके भावी पुत्र की रक्षा करूँगा।' 'तुम रक्षा करोगे?' ब्राह्मण ने अर्जुन को पैर से सिर तक घूरकर देखा और अट्टहास करके उन्मत्त के समान उनका उपहास करता हुआ बोला- 'बहुत मूर्ख हो तुम! अनन्त पराक्रम भगवान अनन्त श्रीसंकर्षण, सर्वेश्वरेश्वर श्रीकृष्ण धनुर्धर शिरोमणि प्रद्युम्न, सुरासुरजयी अमोघ विक्रम अनिरुद्ध जिसकी रक्षा नहीं कर पा रहे हैं उसकी रक्षा तुम कर लोगे, यह अज्ञातपूर्ण तुम्हारा अति साहस है। इस पर मैं आस्था नहीं कर सकता।' 'आप मेरी अवज्ञा मत करे।' अर्जुन ने नम्र किन्तु दृढ़ स्वर में कहा- 'मैं श्रीकृष्ण या कृष्ण पुत्र-पौत्रों जैसा नहीं हूँ। भगवान प्रलयङ्कर को मैंने प्रत्यक्ष समर में संतुष्ट किया है। मेरा गाण्डोव धनुष सुरों के द्वारा भी सुपूजित है। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि आपके पुत्र की रक्षा न कर सका तो अग्नि में प्रवेश करके प्राण त्याग दूँगा।' 'अच्छा! ब्राह्मण ने आश्चर्य से फिर अर्जुन को ऊपर से नीचे तक देखा और जाते-जाते कह गया.....'द्वारिका से चले मत जाना। मैं पत्नी के आगामी प्रसवकाल की उपस्थिति पर तुम्हें सूचना देने आऊँगा।' ब्राह्मण ने द्वारिका में जिससे भी चर्चा की, उसी ने धनंजय के अतुलनीय पराक्रम का वर्णन सुनाकर उसकी प्रशंसा की। सब कहते थे- 'गाण्डीव धन्वा अर्जुन अपने प्रण के सच्चे हैं और उनकी शक्ति सामर्थ्य अपार है।' ब्राह्मण यद्यपि शंकित था किन्तु उसका बहुत कुछ भय इस बार दूर हो गया था। पत्नी को उसने भली प्रकार आश्वस्त कर दिया था। अर्जुन को वह प्रायः आशीर्वाद दे आता था। अर्जुन को भी अब वर्ष भर तो द्वारिका अवश्य रुकना था इस निमित्त से। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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