श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. विप्र-पुत्रानयन
ब्राह्मण ने मृत-पुत्र का शव उठाया। उस शिशु का नालोच्छेदन भी नहीं हुआ था। वह शव लाकर महाराज उग्रसेन के द्वार पर उसने रख दिया और क्रोध से चिल्लाता रहा- 'यह राज शठ है। ब्राह्मणद्रोही है। लोभी और भोग-लोलुप है। इस क्षत्रियाधाम के पाप से ही मेरा पुत्र मरा है। हिंसक, दुःशील, अजितेन्द्रिय राजा की प्रजा दुःख पाती है, दरिद्र रहती है और सदा दैविक, मानसिक ताप से संतप्त रहती है। हाय! इस अधम के कुकर्म से मैं संतान-वियोग का क्लेश उठा रहा हूँ।' दुःखी पुत्रमरण से संतप्त ब्राह्मण व्याकुल होकर जो मुख में आया कहता गया। महाराज उग्रसेन तथा दूसरे लोग क्या कहें, क्या करें? जब सर्व-समर्थ श्रीकृष्णचन्द्र ही सब कुछ सुनकर शान्त हैं, भगवान संकर्षण कुछ नहीं बोलते तो दूसरा कोई मृत्यु को रोक पावेगा?' सबको आश्चर्य हुआ जब ब्राह्मण के पीठ फेरते ही उसके मृत-पुत्र का शव भी अदृश्य हो गया। 'यह कोई असाधारण शक्ति का कार्य है।' लोगों में परस्पर चर्चा चल पड़ी- 'पता नहीं उस ब्राह्मण के पुत्र के रूप में कौन प्रकट हुआ था और मरण का नाटय करके अदृश्य हो गया।' यह घटना एक बार ही होकर रुक गयी होती तो भी कोई बात थी। बार-बार इस घटना की आवृत्ति होने लगी। ब्राह्मण की पत्नी को प्रतिवर्ष संतान- 'पुत्र संतान होती थी और जन्मते ही मर जाती थी। वह पुत्र का शव राजद्वार पर लाकर रखकर खरी-खोटी संतप्त हृदय से सुनाकर रोता लौट जाता था और वह शिशु का शव अदृश्य हो जाता था। द्वारिका में किसी के साथ नहीं, इस ब्राह्मण के साथ ही यह दुर्घटना पता नहीं क्यों संयुक्त हो गयी थी? पता नहीं कौन-सी अदृश्य शक्ति बेचारे ब्राह्मण के पीछे पड़ गयी थी। कोई ऐसी शक्ति कि श्रीबलराम और श्रीद्वारिकाधीश मौन रहकर उसका यह अन्याय सहन कर रहे थे। ये दोनों शान्त थे तो दूसरा कोई कर भी क्या सकता था? सब दु;खी थे ब्राह्मण के दुःख से, किन्तु निरुपाय थे। ब्राह्मण ने ग्रह-शांति, दैवी-बाधा निवारण का उपाय भी कर लिया। महर्षि गर्गाचार्य भी उसे कुछ बतला नहीं पा रहे थे। दूसरे भी जो ऋषि-मुनि मिले, कोई ध्यान करके भी ठीक कारण नहीं जान सके। सर्वज्ञ ऋषिगण भी कह देते थे- 'मृत्यु का, यम का इसमें किचिंत भी हाथ नहीं दीखता।' ब्राह्मण बेचारा क्या करे? उसके तो पुत्र मर रहे थे और द्वारिका छोड़कर वह कहीं चला भी जाय तो कहाँ जाय? यहाँ तो एक आशा थी कि कभी न कभी श्रीकृष्ण को उस पर दया आवेगी। वे सर्वेश्वर यदि परित्राण नहीं देते तो दूसरा कोई शरण दे सृष्टि में सम्भव ही नहीं है। ब्राह्मण को द्वारिका त्यागकर कहीं चले जाने की सम्मति किसी ने नहीं दी। उसके मन में भी यह बात नहीं आयी। जहाँ कल्प पादप रोषित हैं, वहाँ यदि विपत्ति दूर नहीं होती तो कहीं नहीं होगी। ब्राह्मण ने निश्चय कर लिया था और प्रत्येक पुत्र का मृत-शव वह महाराज उग्रसेन के द्वार पर छोड़कर चला जाता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज