श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
60. पांडव समस्या
यह तथ्य सबको ज्ञात था। इसमें किसी को कुछ कहना नहीं था। श्रीबलराम कुछ क्षण चुप रहे। सब उनका मुख देख रहे थे। अब उन्होंने कहा- 'इसमें राज्य तथा कोष दुर्योधन को देने की बात कहाँ से आ गयी? दुर्योधन को कैसे स्वत्व प्राप्त हो गया कि वह पांडवों के राज्य तथा कोष पर अधिकार कर ले?' 'पांडव वन में चले गये तो उनका राज्य कौन सम्हालाता?' इस बार कृतवर्मा बोला। इसकी सहानुभूति सदा से दुर्योधन के साथ रही है, किन्तु इस समय उसका स्वर भी शिथिल ही था। उसे भी लग रहा था कि दुर्योधन ने अनीति की है और उसका पक्ष दुर्बल है। 'धनंजय का पुत्र क्यों सिंहासन पर नहीं बैठ सकता?' भगवान संकर्षण को आज कुछ निर्णय कर ही लेना था। वे श्रीकृष्ण के शान्त बैठे रहने से अधिक चिढ़ गये थे। 'क्या हुआ कि अभिमन्यु अभी बालक है। हम उसे सिंहासन पर बैठा देंगे और सुभद्रा तथा देवी पृथा उसके शासन को संहालेंगी। धर्मराज युधिष्ठिर लौटेंगे तो अभिमन्यु अपने पितृव्य के लिए सिंहासन रिक्त कर देगा।' 'आपका शिष्य आपकी इस व्यवस्था को सरलता से स्वीकार नहीं करेगा।' सात्यकि ने किंचित व्यंग किया। 'मैं जानता हूँ कि दुर्योधन कितना दुष्ट और अभिमानी है।' आज भगवान बलराम को दुर्योधन पर कोई करुणा नहीं थी। वे जो उसे सदा सुयोधन कहते थे, आज दुर्योधन ही कह रहे थे- 'किन्तु उसको अपनी व्यवस्था स्वीकार कराना मुझे और यादव वाहिनी को आता है। हम अभिमन्यु को लेकर आज ही प्रस्थान करेंगे।' 'समस्या दुर्योधन के स्वीकार करने की नहीं है।' अब श्रीकृष्णचन्द्र उठे- 'वह स्वीकार नहीं करेगा, यह सब जानते हैं और उसे स्वीकार करने को विवश करने की शक्ति हममें है, किन्तु मैं जानता हूँ कि पाण्डु पुत्र इस प्रकार प्राप्त राज्य को कभी स्वीकार नहीं करेंगे। धर्मराज युधिष्ठिर इसे सुनकर प्रसन्न नहीं होंगे। हमें अपने उन धर्मप्राण स्वजनों की भावना का सम्मान करना है। यदि यह बाधा न होती तो मैं स्वयं अब तक यह कार्य संपन्न कर चुका होता।' पांडवों के एकमात्र आश्रय श्रीकृष्ण और श्रीकृष्ण के परमप्रिय धनंजय। बहिन सुभद्रा तथा भागिनेय अभिमन्यु इन्हें अत्यन्त प्रिय हैं। जब यही इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करते, पांडव कैसे कर लेंगे। सबको ही शांत होकर प्रतीक्षा करना ही उचित जान पड़ा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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