श्री द्वारिकाधीश -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
31. पारिजात-हरण
शची मन में जल-भुनकर रह गयीं- 'इस मानवी में कितना अंहकार है।' वे क्या जानें कि द्वारिका में दासियों के कक्ष भी उनके अन्तःपुर से कहीं अधिक सम्पन्न हैं। द्वारिकेश की महारानी अनुग्रहपूर्वक ही यहाँ आ बैठी हैं। शची को सत्कार का शिष्टाचार निभाना था; किन्तु अतिथि-अर्चन पर उन्होंने सेविका को लगा दिया और जब सेविका ने कल्पवृक्ष का पुष्प उठाया- सत्यभामा जी के केशालंकार के लिए, शची का अहंकार प्रकट हो गया। वे सेविका की भर्त्सना करती बोलीं- 'तुझे इतना भी पता नहीं है कि मर्त्य एवं सुरों के सत्कार-सुमन भिन्न-भिन्न होते हैं।' सेविका ने कल्पवृक्ष के पुष्प पात्र में धर दिये। सत्यभामा जी अपरिचित नहीं थी इस पारिजात पुष्प से। उन्होंने अपने रोष को रोक लिया और शची से कह दिया- 'सखि! मैं तुम्हारे स्वागत से सन्तुष्ट हूँ। सुरों को मर्त्य की अर्चा नहीं करनी चाहिए।' 'सुर पूज्य हैं। मानवों से सत्कार पाने योग्य। उन्हें मर्त्य को स्वागत-सम्मान देना शोभा नहीं देता।' विदा होते समय महारानी सत्यभामा ने इन्द्र को हाथ जोड़ा तो श्रीकृष्णचन्द्र और शक्र समझ गये कि शची ने कुछ प्रमाद किया है; किन्तु अवसर नहीं था बोलने का। इन्द्र को अपनी योजना-स्वर्ग में ही सत्यभामा कल्पवृक्ष का दान कर दें, प्रस्तावित करने का भी समय नहीं मिला। सुरों की सम्यक अभ्यर्थना की भी उपेक्षा करके गरुड़ सत्यभामा जी के संकेत पर उड़ चले। 'हम यहाँ आ गये हैं तो नन्दन-कानन देखते चलें।' सत्यभामा जी ने कहा। 'यह यात्रा तो तुम्हारी इच्छानुसार ही चल रही है।' श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कह दिया। विनतानन्दन वन में उतर पड़े। 'यह है तुम्हारे समुद्र-मन्थन से प्रकट पारिजात तरु?' सत्यभामा जी को नन्दनकानन में दूसरा कुछ देखना नहीं था। वे सीधे कल्पवृक्ष के समीप पहुँची- 'इसे गरुड़ पर लेते चलो। तुमने इसे मेरे प्रांगण में लगाने का वचन दिया है।' 'इन्द्र ने इसे देना अस्वीकार कर दिया है।' हँसे श्रीकृष्णचन्द्र। 'इन्द्र का क्या स्वत्व है इस पर? वे स्वीकार-अस्वीकार करने वाले होते कौन हैं?' सत्यभामा जी ने तनिक रोष से कहा- 'तुम्हारी अपनी वस्तु पाने के लिए भी मुझे शची से प्रार्थना करनी पड़ेगी।' 'जैसी तुम्हारी इच्छा! पर तुम मुझसे रूठो मत!' श्रीकृष्णचन्द्र ने हाथ बढ़ाया तो वह दिव्य तरु स्वयं उठता चला आया। वह बहुत छोटा बन गया- एक नन्हें पौधे के समान। उसे सत्यभामा ने लेकर अपनी गोद में रख लिया और गरुड़ पर बैठ गयीं- 'इसे मैं किसी को नहीं दूँगी।' श्रीकृष्णचन्द्र पत्नी के साथ पारिजात लेकर स्वर्ग से चल पड़े। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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