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- लखि प्रभु चरित देव हरषाने।
- वरपि सुमन हिय अति सुख माने।।
- गान करहिं गंधर्ब प्रबीने।
- अप्सर करहिं नृत्य रस-भीने।।
- बिबिध भाँति के बजे बधाए।
- द्विजबर करत विनय मन लाए।।
- संख-सब्द, जय-सब्द अनेका।
- दुंदुभि सुघर एक तें एका।।
भेरी का ‘भम-भम’ रव, पटह पर निरन्तर आघात जनित घोर शब्द, डिण्डिम का अति प्रचण्ड घोष, अविरल दुन्दुभिनाद, गन्धर्व-विद्याधर-किंनर प्रभृति का सम्मिलित गान, ऋषियों का स्तोत्रपाठ ये सभी परस्पर ऐसे मिल गये कि कुछ क्षण तो देवसमुदाय की श्रोत्रशक्ति अन्य किसी भी शब्द को ग्रहण करने में सर्वथा कुण्ठित हो गयी-
- भेरीभांकाररावैः पटुपटहघनाघातसंघातघोरैरूञ्चण्डैर्डिण्डिमानां ध्वनिभिरविरलैर्दुन्दुभीनां प्रणादैः।
- गानैर्गन्धर्वविद्याधरतुरगसुखप्रेयसीनां मुनीनां स्तोत्रैः शब्दान्तरेषु क्षणमिव बधिराः स्वर्गिणस्तेबभूवुः।।[1]
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