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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
32. वृक्षों के टूट जाने पर भी श्रीकृष्ण को अक्षत पाकर माता-पिता का उल्लास
क्षणभर भी न लगा, व्रजपुर में जितनी गोपसुन्दरियाँ थीं, सभी नन्दभवन में आ पहुँचीं। उनकी तो बात क्या, वे निकट थीं; सुदूर गिरिराज के प्रान्त में व्रजेश्वर थे, व्रजपुर का समस्त गोपसमुदाय था, वे सब के सब आ पहुँचे। उन सबको स्मृति है केवल एकमात्र श्रीकृष्णचन्द्र की। वृक्षपात के उस महागर्जन को सुनकर सब इतने भयभीत हो गये हैं, श्रीकृष्णचन्द्र की अनिष्टाशंका से उनका मन इतना अधिक भर गया है कि नन्दनन्दन के अतिरिक्त अन्य किसी भी वृत्ति के लिये वहाँ स्थान नहीं है। इस अवस्था में वे आ पहुँचे हैं-
श्रीकृष्णचन्द्र में तन्मय हो जाने पर यहाँ भी, इस प्रपंच में भी देशकाल का व्यवधान नहीं रहता। फिर यह तो स्वयं भगवान व्रजेन्द्रनन्दन की चिदानन्दमयी लीला, उनके नित्य चिदानन्दमय परिकर, उनकी चिन्मयी व्रजभूमि से सम्बद्ध घटना है। यहाँ व्रजेश्वर, व्रजगोप यदि गिरिराज की सीमा, विस्तृत वनप्रदेश, व्रजपुर की उत्तुंग अट्टालिकाएँ लाँघकर क्षणभर में वहाँ आ पहुँचे, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। यहाँ तो लीला के लिये ही चिन्मय देश- काल हैं। लीला में आवश्यकतानुसार उनका विस्तार-संकोच होता है। इस समय दोनों की आवश्यकता है। अतः नन्दव्रज एवं गिरिराज का मध्यवर्ती विशाल भूखण्ड तो संकुचित हो गया। व्रजेश्वर, गोप ऐसे आ पहुँचे मोना द्वार पर ही थे; पर वह प्रांगण विस्तृत हो गया, इतने स्थान में ही समस्त पुरवासी समा गये। अस्तु, आते ही सबकी दृष्टि में भग्न यमलार्जुन वृक्ष तो आ गये; महागर्जन इन्हीं का था, यह भी ध्यान में आ गया। पर इतने प्रकाण्ड वृक्ष मूल से उखड़कर गिर कैसे गये, इनके धराशायी होने में हेतु क्या है- इसे वे सर्वथा नहीं समझ पाये। सहसा ऐसी घटना घटित हो जाने का कोई कारण वे न ढूँढ़ सके। कारण न पाकर उनका चित्त भ्रान्त होने लगा-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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