विषय सूची
श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
32. वृक्षों के टूट जाने पर भी श्रीकृष्ण को अक्षत पाकर माता-पिता का उल्लास
अब तक उन्हें श्रीकृष्णचन्द्र के दर्शन नहीं हुए हैं। अर्जुनतरु की शाखाश्रेणी, पल्लवजाल में वे छिपे हैं। अवश्य ही गोपशिशुओं की प्रसन्न, कौतुकपूर्ण मुद्रा देखकर उन्हें यह आश्वासन तो मिल जाता है कि नन्दनन्दन सकुशल हैं। अर्जुनतरु को घेरकर वे आश्चर्य की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं। इतने में व्रजेश्वर को एक गोपशिशु अंगुलि से वृक्षमूल की ओर देखने का संकेत करता है। व्रजेश किंचित उस ओर आगे बढ़कर देखते हैं और देखकर दंग रह जाते हैं। उन्हें कल्पना नहीं थी कि अपने पुत्र की ऐसी अद्भुत अनुपम झाँकी देखने को मिलेगी। कटिप्रदेश में पट्टडोरी बँधी है, डोरी ऊखल से संनद्व है तथा अपने जानु एवं करतल को पृथ्वी पर टेके वे ऊखल को खींच रहे हैं तथा नेत्रों में भय भरा है। यह दृश्य व्रजेश्वर के समक्ष आते ही जाने कैसे सभी गोप-गोप-सुन्दरियाँ भी एक साथ यह देख लेती हैं। वास्तव में तरु के मूलोत्पाटन का हेतु उनके सामने आ जाता है, फिर भी वे समझ नहीं पाते। किस महाबलवान का यह कार्य है, किस हेतु से उसने इन्हें उखाड़ फेंका इसका कुछ भी निर्णय नहीं कर पा रहे हैं। क्षण-क्षण में उनका आश्चर्य बढ़ता जा रहा है। अधिकांश का मन किसी महाबली दैत्य के उत्पात की कल्पना कर व्याकुल होने लगता है-
जो कुछ अधिक धैर्यशाली हैं, वे दैत्यकृत किस माया का अनुसंधान करने चलते हैं। पर वैसा कोई भी चिह्न उन्हें नहीं प्राप्त होता। दैत्य नहीं आया-यह धारण तो पुष्ट होती है; किंतु-
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज