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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
26. स्वयं यशोदा के द्वारा दधिमन्थन तथा श्रीकृष्ण का जननी को रोककर उनका स्तन्य पान करना
किसी अनिर्वचनीय सौभाग्य से जिस बड़भागी के अन्तस्तल में स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की साक्षात सेवा पाने की अदम्य लालसा जाग उठे, अनन्त वर्षों की प्रतीक्षा के उपरान्त इस लालसा के फलस्वरूप स्वप्न में भी क्षणभर के लिये श्रीकृष्ण-पादारविन्द में सेवा समर्पित करने का सुअवसर प्राप्त हो जाय, उसे ही यत्किंचित कल्पना होनी सम्भव है कि यशोदारानी का वह आनन्द कैसा है उनकी उत्कण्ठा कैसी है! अस्तु, अतिकाल न हो जाय, इस भावना से व्रजरानी, रजनी का अवसान होने में पर्याप्त विलम्ब रहने पर भी शय्या का परित्याग करने चलीं। साथ ही भय था कि वक्षःस्थल पर सोये हुए नीलमणि की कहीं निद्रा भंग न हो जाय; नीलमणि की नींद टूट गयी तब फिर तो यह स्वर्गसुयाग हाथ से गया। अतः बड़ी सावधानी से अपने अंगों को धीरे-धीरे समेटनें लगीं। क्रमशः श्रीकृष्णचन्द्र के निद्रावेश से अलसाये श्यामल अंगों को अपने अंगों से विलगकर, उस कर्पूर-धवन सुकोमलतम शय्या पर रखकर मन्द-मन्द थपकी देने लगीं। जब पुनः नीलमणि का निद्रावेश पूर्वतत हो गया, तब वे पर्यंक से धीरे-धीरे नीचे उतर आयीं! व्रजरानी की दृष्टि शयनकक्ष के दीप की ओर गयी। दीप की लौ किंचित हिल रही थी; मानो सारी रात निष्पन्द रहकर वह जननी के उर-हार नीलमणि की शोभा निहारती रही है, किंतु जब जननी ने नीलमणि को वक्षःस्थल से उतारकर शय्यापर सुला दिया, तब व्याकुल हो उठी है, सिर हिला-हिलाकर प्रतिवाद कर रही है- ‘नहीं-नहीं, नन्दगेहिनो! ऐसे मृदुल अंगों को शय्या पर मत रखो, इनके उपयुक्त स्थान तो तुम्हारा हृदेश ही है।’ यशोदारानी दीप के निकट चली जाती हैं। समीप में रखी हुई स्वर्ग-श्लाका से लौ को किंचित ऊपर उठा देती है, लो पहले की अपेक्षा अत्यधिक उज्ज्वल मन्जुल ज्योति बिखेरने लगती है। जननी दी को हाथ पर उठा लेती हैं, लेकर निद्रित नीलमणि के समीप चली जाती हैं। इसके निर्मल आलोक में पहले पुत्र को ललाट से चरणपर्यन्त निहारका, फिर अपने युग्म हस्ततल पर दीप को स्थापित कर श्रीकृष्ण के मुखारविन्द के सम्मुख इसे (दीप को) तीन बार घुमाती हैं। यह करके फिर लौके-अग्र-भाग पर संचित किंचित काजल में बाम तर्जनी एवं अंगुष्ठ के सहारे लेकर नीलमणि के भ्रूमध्य पर श्याम तिलक लगा देती हैं। श्रीनिवास श्रीकृष्णचन्द्र के भाल पर लगे उस श्यामबिन्दु की शोभा निहारने पर जननी का रोम-रोम पुलकित होने लगता है। श्यामबिन्दु की शोभा भी निराली ही है; मानो यशोदा के करकमल से छूटकर एक मत मिलिन्द नीलाम्बुज दल पर जा गिरा हो और गिरते ही पूर्व की अपेक्षा मधुरतर पराग का आस्वाद पाकर तत्क्षण वहीं अचेत हो गया हो। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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