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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
26. स्वयं यशोदा के द्वारा दधिमन्थन तथा श्रीकृष्ण का जननी को रोककर उनका स्तन्य पान करना
जननी अपने नीलमणि का सौन्दर्य निहारने में तन्मय हो गयीं; किंतु कुछ ही क्षण पश्चात मानो किसी ने स्मरण करा दिया हो, इस प्रकार उन्हें अपने कर्तव्य की स्मृति हो आयी। मैया ने धीरे-धीरे कक्ष का प्रमुख द्वार खोला और बाहर अलिन्द में चली आयीं। अतिशय शीघ्रता से अपने हाथ-पैर धोये। फिर वस्त्र-परिवर्तन करने चलीं। रात्रि में धारण किये हुए सभी वस्त्रों को उतारकर नवीन पीतवर्ण क्षौम वस्त्र धारण किये, सुचित्रित घाघरा धारण किया, कन्जुकी धारण की तथा सिर को विविध चित्रावली- परिशोभित ओढ़नी से ढक लिया। मन्थन के समय कटिदेश से वस्त्र स्खलित न हो जाय, इसलिये कान्ची धारण कर घाघरे को और भी सुदृढ़ बना लिया। यह करके फिर ऐसे स्थान पर मथानी को स्थापित किया, जहाँ से वे कोष्ठ में विराजित नीलमणि को निरन्तर देखती रह सकें। साथ ही कुछ दूर पर पाश्ववर्ती कोष्ठ के एक चूल्हें में अग्नि प्रज्वलित करके उस पर दूध का पात्र रख दिया, जिससे श्रीकृष्ण के उठने तक दूध भी औटकर मधुर बन जाय। यह चूल्हा भी ऐसे स्थान पर है, जिसे जननी मन्थन करते समय निरन्तर देखती रह सकें। इस प्रकार सारी व्यवस्था करके यशोदारानी दधिमन्थन आरम्भ करने चलती हैं। आज कोई दासी नहीं, जो मैया के इस सौभाग्य में हिस्सा बँटाने आये। सब पर विविध कार्य-भार सौंपकर वे उन्हें यहाँ से बहुत दूर, बहुत पहले भेज चुकी हैं। आज कोई विघ्न नहीं है। जननी परमानन्द में डूबती-उतराती दधिमन्थन करने लगती हैं-
मन्थन आरम्भ होते ही श्रीकृष्ण जननी में प्रेमावेश भी आरम्भ हुआ। आजतक यशोदानन्दन ने जितनी लीलाएँ की हैं, सब-की-सब व्रजरानी के हृदय मन्दिर में अंकित हैं; क्रमशः इनका द्वार खुलने लगा, जननी के स्मृतिपथ में ये लीलाएँ उदय होने लगीं, हृदय में रससिन्धु उमड़ने लगा किंतु वह वहीं रुद्ध रह सके, मसृण हृत्प्रदेश में इतना स्थान कहाँ। अतः उच्छलित होकर यह रसधारा गीत के रूप में व्रजेश्वरी के मुख से निस्सृत होने लगी। मन्थन की ध्वनि में मिले हुए कण्ठ से व्रजरानी अपने नीलमणि के विविध चरित्रों का सुमधुर गान करने लगीं-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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