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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
18. व्रजेश्वर को श्रीकृष्ण के मुख में अखिल विश्व का दर्शन
जननी की शत-शत मनुहार पाकर श्रीकृष्णचन्द्र आँखें खोलते हैं। श्याम से उठाकर जननी उन्हें हृदय से लगा लेती हैं। बारंबार मुख-चुम्बन करती हुई अस्त-व्यस्त केशों को ठीक करने लगती हैं। फिर कनकझारी से सुगन्धित जल लेकर मुखारविन्द का प्रक्षालन करती हैं। मुख धुलाकर, अपने सुकोमलतम क्षौम-आँचल से पोंछकर नीलमणि को कलेवा करने को कहती हैं तथा नीलमणि भी जननी की लाड़भरी अभ्यर्थना स्वीकार कर कलेवा करते हैं-
कलेवा समाप्त कर मुख धुलाये बिना ही श्रीकृष्णचन्द्र जननी की गोद से उछल पड़ते हैं। हँसती हुई जननी पकड़ने उठ पड़ती हैं, किंतु इतने में तो नीलमणि शयनागार के बाहर चले आते हैं। उस द्वार से नहीं कि जिसके समीप नन्दराय खड़े हैं, दूसरे द्वार से; क्योंकि उन्हें भय है, कदाचित बाबा पकड़ न ले; पकड़ लेंगे तो खेल में विलम्ब हो जायगा। उन्हें कुछ ही दूर पर आते हुए अंश, श्रीदाम, सुबल, अर्जुन आदि सखा दीख पड़ते हैं। बस, फिर तो पूछना ही क्या है, वे उन्हीं की ओर दौड़ पड़ते हैं, बालमण्डली में जा मिलते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अमरूद
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