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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
18. व्रजेश्वर को श्रीकृष्ण के मुख में अखिल विश्व का दर्शन
व्रजेश्वर आज कुछ कारणवश गोष्ठ नहीं गये। प्रायः प्रतिदिन ही मध्यरात्रि का अवसार होेते ही वे गोष्ठ चले जाते थे, पर आज रुक गये। कालिन्दी में स्नान करके, संध्यावन्दन से निवृत्त होकर वे शालग्रामपूजन करने जा रहे थे, पर अन्तर्मन में श्रीकृष्णचन्द्र का चिन्तन होते रहने के कारण नारायण- मन्दिर की ओर न जाकर भूल से शयनागार में चले आये। वहाँ नीलमणि को जगाने में तन्मय, आनन्द-निमग्न यशोदारानी उन्हें दीख पड़ती हैं और तब कहीं व्रजेश को अपनी भूल का भान होता है। ठीक इसी क्षण पुत्र के मुख पर डाले हुए उज्ज्वल दुकूल को व्रजरानी हटा देती हैं, एक अद्भुत आलोकमाला-सी सर्वत्र फैल जाती है, शयनागार उद्भासित हो उठता है, रवि किरणों का स्पर्श पाकर विकसित हुए कमलों की भाँति नन्ददम्पति का रोम-रोम हर्ष से खिल उठता है, हृदय में आनन्द की सरिता बह चलती है। व्रजेश निर्निमेष नयनों से पुत्र के मुख की ओर देखने लगते हैं। उन्हें प्रतीत हो रहा है- ओह! मानो अभी-अभी सिन्धुमन्थन हुआ हो; यह धवल दुकूल नहीं, यह तो सागर के वक्षःस्थल पर एकत्रित फेन था, व्रजरानी का हाथ नहीं मन्थनदण्ड था; मन्थन के आवेग से फेन फट गया, पूर्णचन्द्र दीखने लग गया। क्या यह मेरे पुत्र का मुख है? नहीं-नहीं, यह तो अभी-अभी सागर-मन्थन से उद्भूत पूर्णचन्द्र है-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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