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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
18. व्रजेश्वर को श्रीकृष्ण के मुख में अखिल विश्व का दर्शन
अब व्रजेश्वर को यह स्मृति होती है शालग्राम सेवा में घड़ी भर से अधिक विलम्ब हो चुका है। इतनी देर तो वे पुत्र का जागरण, कलेवा-भोजन देखने में तत्लीन हो रहे थे। पुत्रासक्ति वश इष्ट सेवा की ऐसी उपेक्षा, मेरे द्वारा इतनी अनवधानता, ओह!-व्रजेश्वर उद्विग्न हो जाते हैं। द्रुतगति से नारायण-मन्दिर की ओर चल पड़ते हैं। वहाँ जाकर पूजा में मनोनिवेश करते हैं-
हाथ में पुष्प लिये, अर्द्धनिमीलित-नेत्र-हुए व्रजेश प्रार्थना कर रहे हैं-‘देव! पुत्रजन्म के पश्चात एक दिन भी मैं तुममें तन्मय होकर तुम्हारा आराधन न कर सका। मैं स्पष्ट अनुभव कर रहा हूँ, इस बालक के प्रति मेरी आसक्ति प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है। एक दिन था जब मेरे हृत्सिंहासन पर तुम नित्य विराजित रहते थे। निरन्तर तुम्हारी अभिराम मूर्ति मेरे नेत्रों के सामने रहती थी; किंतु अब तो तुम्हारी स्मृति भी मुझे कदाचित् ही होती है,। जो होती है, वह भी केवलमात्र इसलिये कि इस बालक का अनिष्ट-निवारण होता रहे। मेरे नेत्रों में, मेरे कानों में, मेरे प्राणों में, मेरे मन में, मेरी बुद्धि में, मेरे आत्मा में तो यह बालक भर गया है। एक क्षण के लिये भी मैं इसे भूल नहीं पाता। चिरकालीन अभ्यासवश शरीर से, वाणी से अर्चन-विधि का निर्वाह तो हो जाता है, क्रिया सम्पन्न हो जाती है; पर नाथ! मेरे मन में तो आराधना के समय भी यह बाल की समाया रहता है। उपासना की यह विडम्बना-मेरे स्वामिन! किस मुख से कहूँ कि तुम इसे स्वीकार करो; किंतु करुणानिधे! तुम मेरी इस भावहीन अर्चना को भी स्वीकार करते ही हो, किया है, आगे भी अवश्य करोगे........।’ |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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