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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
12. श्रीकृष्ण की मनोहर बाललीलाएँ
जननी आती हैं, गगरी के पास आकर उसमें हाथ डालकर उज्ज्वल नवनीतखण्ड निकाल लेती हैं तथा नीलमणि के हाथों पर देती हैं। ओह! श्रीकृष्णचन्द्र के आनन्द का पार नहीं,-जैसे सचमुच चन्द्र ही उनके हाथ में आ गया हो! आनन्द में निमग्न हुए नीलमणि गगरी की ओर देखते हैं। गोपिकाओं के निकट खड़े हो जाने से प्रतिबिम्ब विलुप्त हो गया है। किंतु श्रीकृष्णचन्द्र यह सोच रहे हैं कि चन्द्र गगरी से निकलकर मेरे हाथों पर आ गया है-
नवनीतपिण्ड लेकर वे आँगन में दौड़े। उनके पीछे नन्दरानी एवं गोपिकाएँ भी दौड़ीं। पर बाहर जाने का द्वार तो गोपिकाओं की भीड़ से रुद्ध है। वे बाहर जा ही कैसे सकते हैं? इसीलिये पुनः मन्थन-गगरी के ही समीप आ जाते हैं। अब भी चन्द्र गगरी में प्रतिभासित हो रहा है। नीलमणि की दृष्टि भी उस पर पड़ ही जाती है। बस।..............................नीलमणि ने समझ लिया-जननी ने मेरी वंचना की है, चन्द्र तो अभी भी गगरी में ही है। उनके पंकजनयनों में रोष-मानव्यथा भर जाती है। वे वहीं भूमि पर लोट जाते हैं, हाथ-पैर पटक-पटककर करुणक्रन्दन प्रारम्भ करते हैं। रूठे हुए श्रीकृष्णचन्द्र जननी की गोद में भी नहीं उठना चाहते। किसी प्रकार जननी उन्हें वक्षःस्थल पर उठा लेती हैं। समझाती हैं-मेरे लाल! चन्द्र तो गगन में है, गगरी में नहीं। वह देख-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीगोपालचम्पूः)
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